शुद्धात्मा सिद्ध भगवान तेनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि पोताना अनुभवमां एवुं विचारे छे. चौदमा गुणस्थाने पौद्गलिक
शरीरना संयोगमां रहेला आत्मा ते शरीरने छोडीने पोतानी शुद्ध परिणति वडे शरीराकार पोते चेतनरूप सिद्ध देव
थईने रहे छे. तेम सम्यग्द्रष्टि पण पोताना स्वभावने एम विचारे छे के दिव्यद्रष्टिथी (अंतर स्वभाव द्रष्टिथी)
निश्चय करीने जोतां हुं पण मारा चैतन्यभाव वडे आ पौद्गलिक शरीरथी भिन्न छुं. एम भिन्नपणुं विचारे छे के
वर्तमानमां जे आ शरीर साथे एक क्षेत्रे रहेलो छुं, तेमां जे देखवा– जाणवानो गुण छे ते तो मारो छे, आ शरीर तो
जड छे. आयु पूर्ण थतां तेम ज सिद्ध दशा थतां ते शरीर छूटी जाय छे अने हुं तो एवोने एवो स्वक्षेत्रमां स्थित ज
छुं. आ शरीरना चामडी, हाडकां, मांस, नस वगेरे पौद्गलिक आकाररूप मूर्तिक छे, ते मारुं अंग नथी. हुंं तो चैतन्य
अमूर्तिक छुं. आ शरीरनी चामडी, मांस, हाडका स्कंध वगेरे खरी जाय तो भले खरी जाव, हुं तो देखनार–जाणनार
मारा स्थानमां (स्वभावमां) रहुं छुं. मारा आत्मप्रदेशो साथे एक क्षेत्रे रहेला सर्वे पौद्गलिक मूर्तिक परमाणुओ
खरी जतां पण हुं देखनार–जाणनार सिद्ध समान आत्मा रही जाउं छुं. सम्यकत्व थतां स्व–परनो विचार आवो ज
थाय छे. एवो विचार थतां सम्यग्द्रष्टिने शरीरादि परवस्तुओथी ममत्व छूटी जाय छे. परवस्तुओथी ममत्व छूटतां
निराकूळता सहज ज प्रगट थाय छे. निराकूळता प्रगट थतां चारित्रनी वृद्धि थाय छे, चारित्रनी वृद्धि थतां
विशुद्धतानी विशेष वृद्धि थाय छे, विशुद्धतानी वृद्धि थतां केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे अने केवळज्ञान थतां संसार
भ्रमण टळीने सर्व प्रकारे शुद्ध सिद्धपद पामीने जीव संपूर्ण सुखी थाय छे अने सिद्ध स्थाने बिराजी अकलंक निर्दोष
सिद्ध थाय छे, अने जगत्पूज्य पद धारीने अविनाशी सुखरूप थाय छे. एवा सिद्धपदने अमारा नमस्कार हो, तेमनी
भक्तिना प्रसादथी अमने एवा पदनी प्राप्ति हो.
पण अन्य मतमां होई शके नहि. नव तत्त्वनी श्रद्धा, सत्शास्त्रोनुं ज्ञान अने छकाय जीवोनी दया–ते जैननो व्यवहार
छे. जैन सिवाय अन्य कोई मतमां नव तत्त्व वगेरेनो स्वीकार नथी. वीतराग शासनमां कहेलां सत्शास्त्रो सिवाय
बीजाना आधारे कदी व्यवहार ज्ञान पण थाय नहि. जैनदर्शनना शास्त्रोनुं ज्ञान ते व्यवहार ज्ञान छे अने ते पण
पुण्यनुं कारण छे, पण धर्म नथी. धर्म तो पोताना आत्मस्वभावनी श्रद्धा, तेनुं ज ज्ञान अने तेमां ज स्थिरता रूप
छे, ए निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र छे. अने तेना सद्भावमां नव तत्त्वनी श्रद्धाने व्यवहार श्रद्धा कहेवाय छे,
सत्शास्त्रोना ज्ञानने व्यवहार ज्ञान कहेवाय छे अने छकाय जीवोनी दयाने व्यवहार चारित्र कहेवाय छे.
ते धर्मनुं कारण होय तो अभव्य जीवने पण ते व्यवहार तो होय छे तो तेने पण धर्म थवो जोईए. आ व्यवहार
पुण्य बंधनुं कारण छे. आवा व्यवहार वगर ऊंचा पुण्य पण बंधाय नहि.
स्वभावमां ढळे तो ज निश्चय सम्यकत्व थाय छे. निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रना वर्णन साथे जैनदर्शननो व्यवहार
पण केवो होय ते ज्ञानीओ सिद्ध करतां जाय छे. अगियार अंगनुं ज्ञान, नव तत्त्वनी श्रद्धा अने छकायनी दयानुं
पालन ते व्यवहार दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते व्यवहारने निश्चयने लक्षे स्वीकार्या वगर साची श्रद्धा न थाय; तेमज
मात्र ते व्यवहारने मानवाथी पण साची श्रद्धा थाय नहि. जेटला व्यवहारना भावो छे ते बधा पुण्य बंधननुं कारण
छे. आत्मस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–