Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 25

background image
वैशाखः २४७३ः १२पः
चारित्ररूप निश्चय ते ज मुक्तिनुं कारण छे. व्यवहारना बधा भावोनुं लक्ष पर उपर अने भेद उपर छे. जे जीवो
नवमी ग्रैवेयक सुधी जाय छे ते बधाने आवो ज व्यवहार होय छे. साचा निमित्तनो जेणे ज्ञानमां स्वीकार कर्यो नथी
तेने ऊंचा पुण्य होई शके नहि.
श्री समयसारजी गाथा एकना प्रवचनना केटलाक प्रश्नोत्तर
(पहेलाना ८प प्रश्नोत्तर माटे जुओ अंक ३प, ३९, ४० तथा ४२)
८६. प्र.–जेने पोताना आत्मानी सिद्धदशा प्रगट करवी छे तेनी गति (परिणमन) कई तरफ होय? ने केवी होय?
उ.–जेने पोतानी सिद्धदशा प्रगट करवी होय ते प्रथम तो सिद्ध जेवा पोताना परिपूर्ण आत्माने ओळखीने
तेनी प्रतीत करे; तेनुं परिणमन पोताना परिपूर्ण स्वभाव तरफ होय, अवस्थामां रागादि विकार होवा छतां ते
तरफनी रुचि न होय तेमज तेने पोतानुं स्वरूप मानीने ते रूपे परिणमे नहि. आ रीते तेमनुं वलण स्वभाव तरफ
होय छे. ते परिणमन शीघ्र होय छे. संसार दशामां अनंतकाळ अज्ञानपणे गाळ्‌यो परंतु ते दशा फरीने स्वभाव
तरफना वलणथी जे साधकदशा प्रगटी ते साधकपणामां अनंतकाळ न लागे, केम के स्वभाव तरफनी गति
(परिणमन) शीघ्र होय छे, तेथी साधकदशा अल्पकाळमां पूरी थईने सिद्धदशा प्रगटे छे. ज्यारे खेडुत घरेथी खेतरमां
काम करवा माटे जतो होय त्यारे बळद धीमा धीमा चाले, पण ज्यारे कामथी छूटीने सांजे घर तरफ आवे त्यारे
दोडता दोडता आवे; केम के घर तरफ जतां होंश छे. तेम जीव संसार दुःखोथी छूटीने स्वभाव तरफ ज्यारे परिणमन
करे छे त्यारे तेने स्वभावनो उत्साह होय छे अने घणो पुरुषार्थ होय छे. विकार तरफ परिणमनमां मर्यादित पुरुषार्थ
हतो पण स्वभाव तरफ परिणमनमां अमर्यादित पुरुषार्थ प्रगटे छे.
८७. प्र.–आचार्यदेवे कह्युं छे के–‘हुं सिद्ध अने तुं पण सिद्ध,’ तो आ वात सिद्धदशा थाय त्यारनी छे के सिद्धदशा थया
पहेलानी?
उ.–जेने सिद्धदशा प्रगट थई गई तेने समजाववानुं न होय. अहीं तो सिद्धदशा प्रगट थया पहेलां
सिद्धसमान परिपूर्ण आत्मानी प्रतीत करावे छे. आचार्यदेव कहे छे के–पर्यायमां राग होवा छतां प्रथम तुं तारा
सिद्धपणानी हा पाड. तारा आत्मामां सिद्धपणानो सत्कार करतां राग टळी जशे अने सिद्धदशा प्रगट थशे.
८८. प्र.–वाणीना मुख्य वक्ता कोण छे?
उ.–श्री अरिहंत तीर्थंकरदेव वाणीना मुख्य वकता छे, तेमनी वाणीमां एकेक समये परिपूर्ण कथन आवे छे.
८९. प्र.–प्रभुनी वाणी सर्वांगथी केम छूटे?
उ.–प्रभुनुं ज्ञान अखंड परिपूर्ण थई गयुं छे, ते ज्ञान वाणीमां निमित्त छे तेथी निमित्तरूप वाणी पण अखंड
सर्वांग प्रदेशथी छूटे छे. ते वाणीमां क्रमरूप अक्षरो होता नथी. ज्यां क्षयोपशम ज्ञान होय त्यां वाणी वगेरेमां क्रम पडे
छे अने ते नियत स्थान द्वारा ज थाय छे, जेम के जोवानुं काम आंखना प्रदेशद्वारा ज थाय, सूंघवानुं काम नाकना
प्रदेशद्वारा ज थाय, बोलवानी क्रिया मुखद्वारा ज थाय; परंतु ज्यां ज्ञाननी पूर्णता थई गई त्यां वाणी पण सर्वांग
छूटे छे.
९०. प्र.–श्री सर्वज्ञदेवनी वाणीनो अधिक आशय कोण समजे?
उ.–श्री गणधरदेव सर्वथी अधिक आशय समजे छे; तेथी तेओने श्रेष्ठ श्रोता कहेवाय छे.
९१. प्र.–अत्यारे अहीं साक्षात् अर्हंत नथी तो अत्यारे अहीं सत्य उपदेश केवी रीते होई शके?
उ.–अत्यारे साक्षात् अर्हंतदेव नथी परंतु गुरु परंपराद्वारा अर्हंत्प्रवचननो अवयव विद्यमान छे, तेमांथी
२००० वर्ष पहेलां आचार्यदेवे समयप्राभृत वगेरेनी रचना करी छे. तेथी अत्यारे पण अविच्छिन्नपणे सतिनो
उपदेश मळी शके छे.
९२. प्र.–रागादि शेमां थाय छे अने ते कयारथी छे?
उ.–रागादि विकार आत्मानी अवस्थामां थाय छे. ते एक समय पूरता ज छे; प्रवाहे अनादिथी छे परंतु एक
पर्यायना राग द्वेष बीजी पर्यायमां आवता नथी.
९३. प्र.–नाश कोनो थाय?
उ.–जे स्वभावभूत न होय पण विभाववडे जेनी उत्पत्ति थई होय तेनो नाश थाय. जे स्वभावभूत होय
तेनो नाश न थाय. सिद्धदशा आत्मानी स्वभावभूत होवाथी प्रगटया पछी ते ध्रुव–अविनाशी छे.