Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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।। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।।
वर्ष चोथुंजेठ
अंक आठ
पंचमकाळे श्रुतज्ञानना अमृतमेह वरसावनार
श्रुत केवळी भगवंत श्री कानजी स्वामीनां
चरणारविंदमां त्रिकाळ नमस्कार हो!!!र४७३
–आत्मानी क्रिया–
त्मानी क्रिया आत्मामां ज समाय छे. लोको कहे छे के मनमां
परण्यो ने मनमां ज रांडयो, तेमां सगांवहालां, मांडवो, जमण, ढोल वगेरे
कांई नहि, तेम चैतन्यमां ज समज्यो अने त्यां ज लीन थई मुक्त थयो.
प्रथम चैतन्य स्वरूपने भेदना विकल्पोथी भिन्न जाण्युं अने पछी ते अभेद
चैतन्यमां ज लीन थईने भेदने तोडीने मुक्त थयो. चैतन्यनी बहारमां कांई
न कर्युं. आत्मानी क्रिया आत्मामां ज समाई जाय छे, आत्मानी संसार क्रिया
के मोक्षक्रिया शरीरमां थती नथी. शरीर तो जड छे. विकार पण आत्मामां थाय
अने मुक्ति पण आत्मामां थाय.
मार्ग ज आत्मानो छे, आत्मा साथे ज तेनो संबंध छे.
आत्मामांथी ज शरूआत थाय छे अने पूर्णता पण आत्मामां ज समाय छे.
आमां ज ए आवी गयुं के एकला आत्मा सिवाय बीजा जे कोई भेदना
विकल्प वच्चे आवे तेने तोडीने अभेद आत्मामां लीन थवुं ते ज मुक्तिनो
उपाय छे.
(श्री समयसार–मोक्ष अधिकार उपरना व्याख्यानोमांथी)
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वार्षिक लवाजम४४छूटक अंक
अढी रूपियाशाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्रचार आना
* आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया काठियावाड *