Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permisson of the Baroda Govt. Regd. No. B. 4787
order No. 30-24 date 31-10-44
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ए खास ध्यान राखवुं के निमित्त वस्तु छे खरी. साचा देव, गुरु, शास्त्रने ओळखे नहि अने कहे के
निमित्तनुं शुं काम छे, उपादान स्वतंत्र छे, एम उपादानने जाण्या वगर स्वछंदी थई प्रवर्ते तो तेनुं अज्ञान ज द्रढ
थाय, एवा जीवने धर्म तो न ज थाय, उल्टो शुभराग छोडीने ते अशुभरागमां प्रवर्ते. श्रीमद् राजचंद्रजी ए
आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के–
उपादाननुं नाम लई ए जे तजे निमित्त,
पामे नहि परमार्थने रहे भ्रांतिमां स्थित.
ध्यान राखजो, आमां उपादाननुं मात्र ‘नाम’ लईने निमित्तनो जे नकार करे छे एवा जीवनी वात छे;
परंतु जेओ उपादानना भावने समजीने निमित्तनुं लक्ष छोडे छे तेओ तो सिद्ध स्वरूपने पामे छे. आ गाथाने
सूलटावीने कहीए तो–
उपादाननो भाव लई ए जे तजे निमित्त,
पामे ते सिद्धत्वने रहे स्वरूपमां स्थित.
अज्ञानी जीव सत् निमित्तने जाणतो नथी अने उपादानने पण जाणतो नथी ते जीव तो अज्ञानी ज रहे छे,
परंतु जे जीवो पोताना उपादान स्वभावना स्वतंत्र भावोने ओळखीने, ते स्वभावनी एकाग्रता द्वारा निमित्तनुं
लक्ष छोडे छे ते जीवो पोताना स्वरूपमां स्थित रहे छे, तेमनी भ्रांतिनो अने रागनो नाश थईने तेओ केवळज्ञान
पामीने मुक्त थाय छे.
जे जीव उपादान निमित्तना स्वरूपने जाणतो नथी अने मात्र उपादाननी वातो करे छे अने निमित्तने
जाणतो ज नथी ते पापी छे. अहीं ‘निमित्तथी कांई कार्य थाय’ एम कहेवानो आशय नथी, परंतु पोताना भावने
समजवानी वात छे. ज्यारे जीवने सत् निमित्तना समागमनो भाव अंतरथी न गोठयो अने स्त्री, पैसा वगेरेना
समागमनो भाव गोठयो त्यारे तेने धर्मना भावनो अनादर अने संसार तरफना ऊंधा भावनो आदर छे. पोताने
वर्तमान राग वर्ते छे छतां ते रागनो विवेक करतो नथी (शुभ–अशुभ वच्चे जरा पण भेद पाडतो नथी) ते जीव
ऊंधा भावने ज सेवे छे. ते ऊंधो भाव कोनो? शुं तुं वीतराग थई गयो छो? जो तने विकल्प अने निमित्तनुं लक्ष
ज न होत तो तारे शुभ निमित्तना लक्षनुं पण प्रयोजन न रहेत. परंतु ज्यारे विकल्प अने निमित्तनुं लक्ष छे त्यारे
तो तेनो जरूर विवेक करवो जोईए. आथी एम न समजवुं के निमित्तथी कांई लाभ–नुकशान छे! परंतु पोताना
भावनी जवाबदारी पोते स्वीकारवी पडशे. जे पोतानी वर्तमान पर्यायना भावने अने तेने योग्य निमित्तोने नहि
ओळखे ते त्रिकाळी स्वभावने कई रीते ओळखशे.
जीव कां तो निमित्तथी कार्य थाय एम मानीने पुरुषार्थहीन थाय छे, अने कां तो निमित्तनो अने स्व
पर्यायनो विवेक चूकीने स्वच्छंदी थाय छे; आ बंने ऊंधा भाव छे. ते ऊंधो भाव ज जीवने उपादाननी स्वतंत्रता
समजवा देतो नथी. जो जीव ऊंधो भाव टाळीने सत् समजे तो तेने कोई नडतुं नथी. ज्यारे जीव पोताना भावथी
सत् समजे त्यारे सत् निमित्तो होय ज छे; केमके जेने सत् स्वभावनुं बहुमान छे तेने सत् निमित्तो तरफनुं लक्ष
अने बहुमान आवे ज, जेने सत्देव–गुरु–शास्त्रनो अनादर छे तेने पोताना ज सत् स्वरूपनो अनादर छे, अने सत्
स्वरूपनो अनादर ते ज निगोद भाव छे, ते भावनुं फळ निगोददशा छे...
–माटे जिज्ञासुओए बधाय पडखेथी उपादान निमित्तने जेम छे तेम बराबर जाणीने नक्की करवुं जोईए.
ए नक्की करतां पराधीनतानी मान्यतानो खेद टळे छे अने स्वाधीनतानुं साचुं सुख प्रगटे छे.–४प–
हवे ग्रंथकर्ता पोतानुं नाम अने स्थान जणावे छे–
नगर आगरा अग्र है जैनी जनको वास;
तिह थानक रचना करी, ‘भैया’ स्वमति प्रकाश. ४६.
अर्थः– आग्रा शहेर जैंनी जनोना वास माटे अग्र छे, ते क्षेत्रे भैया भगवतीदासजीए पोतानी बुद्धिना
प्रकाश प्रमाणे आ रचना करी छे–अथवा तो पोताना ज्ञानना प्रकाश माटे आ रचना करी छे.
आ उपादान निमित्त वच्चेथी वहेंचणीना कथननो जे अधिकार कह्यो ते सर्वज्ञदेवथी परंपरा कहेवायेला
तत्त्वनो सार छे अने तेमांथी मारी स्वमतिथी हुं जेटलुं समज्यो ते ज में आ संवादमां प्रगट कर्युं छे.–४६–
हवे रचनानो दिवस जणावीने आ संवाद पूरो करे छे–
संवत विक्रम भुपको, सत्रहसें पंचास;
फाल्गुन पहिले पक्षमें, दशों दिशा परकाश. ४७.
अर्थः– विक्रम राजाना संवत १७प०ना फागण मासना पहेला पक्षमां आ संवादनी रचना करी छे.
जेम पूर्णिमाना चंद्रनो प्रकाश दशे दिशामां फेलाय छे तेम आ उपादान–निमित्त संबंधी तत्त्वचर्चा दसे
दिशामां तत्त्वनो प्रकाश करशे. ठेर ठेर आनी ज चर्चा चालशे–अर्थात् आ तत्त्वज्ञान जग जाहेर थशे एम अंत मंगळ
साथे आ अधिकार पूर्णताने पामे छे...–४७.