
जाणे. उपादान निमित्तना आ स्वरूपनी साक्षी श्री जिनागमथी मळे छे माटे खेद करवो नहि–शंका करवी नहि.
ते उपादान अने पर ते निमित्त–एम बंने पदार्थो जगतमां छे) जगतमां स्व–पर पदार्थो छे अने ज्ञाननो स्वभाव
स्व–पर प्रकाशक छे, तेथी जो ज्ञान स्व–परना यथार्थ स्वरूपने न जाणे तो ते मिथ्याज्ञान छे. ज्ञाननो स्वभाव स्व–
परने जाणवानो छे तेथी स्व अने परने जेम छे तेम जाणवा. उपादानने स्व तरीके जाणवुं अने निमित्तने पर तरीके
जाणवुं खरूं, बंनेने जेम छे तेम तेना गुण वडे जाणीने पोताना उपादान स्वभावने ओळखवो–लक्षमां लेवो.
निमित्तनी हाजरीने लीधे कार्य थयुं एम माने तो मिथ्याज्ञान छे.
आखा संवादमां क्यांय पण ‘निमित्तथी कार्य थाय’ ए वात स्वीकारवामां आवी नथी. ऊंधाईमां विकार पण जीव
पोते ज करे छे, निमित्त विकार करावतुं नथी; परंतु आ संवादमां तो मुख्यपणे सवळाईनी वात लीधी छे.
सम्यग्दर्शनथी सिद्धदशा सुधीमां जीवनी ज शक्तिथी कार्य थाय छे एम सिद्ध कर्युं परंतु निमित्तनुं बळवानपणुं क्यांय
मानवामां आव्युं नथी. आथी कोई जीव पोतानी अणसमजणने लीधे एम मानी बेसे के आ तो एकांत थई जाय
छे, सर्वत्र उपादानथी ज कार्य थाय अने निमित्तथी क्यांय न थाय–एमां अनेकांतपणुं क्यां आव्युं? तो ग्रंथकार हवे
भलामण करे छे–आमां स्वतंत्र वस्तुस्वभावने सिद्ध कर्यो छे अने निमित्तनो पक्ष कर्यो नथी. (निमित्तनुं यथार्थ
ज्ञान छे परंतु तेनो पक्ष नथी–ते तरफ लक्षनुं जोर नथी) माटे खेद न करशो, परंतु होंशथी समजीने आ वात
स्वीकारजो. केमके आ वातनी शाख श्री जिनागमथी मळे छे.
ते जीव जिनेन्द्रना उपदेशने समज्यो ज नथी. निमित्तोनुं अने कर्मोनुं ज्ञान पुरुषार्थमां अटकवा माटे कह्युं नथी परंतु
निमित्तरूप परवस्तुओ छे अने पर लक्षे थता जीवना परिणामो पण अनेक प्रकारे विकारी थाय छे एम जाणीने
पोताना निज परिणामनी संभाळ करवा माटे निमित्त–नैमित्तिक संबंधनुं ज्ञान कराव्युं छे; ते ज्ञान सत्यपुरुषार्थनी
वृद्धि माटे ज छे. परंतु “तीव्र कर्मनो उदय आवीने मने हेरान करशे तो मारो पुरुषार्थ नहि चाले शके!” एम जे कहे
छे ते जीवने पोताने पुरुषार्थ करवो नथी तेथी ज ते पुरुषार्थ हीनपणानी वातो करे छे. अरे भाई! पहेलां तने ज्यारे
कर्मोनी खबर न हती त्यारे तुं आवा तर्क नहोतो करतो, अने हवे कर्मोनुं ज्ञान थतां तुं पुरुषार्थनी शंका करे छे; तो शुं
हवे निमित्तनुं साचुं ज्ञान थवाथी तने नुकशान थशे? माटे हे जीव! निमित्त कर्मो तरफनुं लक्ष छोडीने तुं तारा ज्ञानने
उपादानना लक्षमां जोडीने साचो पुरुषार्थ कर! जेटलो तुं पुरुषार्थ करीश तेटलुं कार्य आवशे ज, तारा पुरुषार्थने
रोकवा जगतमां कोई समर्थ नथी. जगतमां बधुं ज स्वतंत्र छे, रजकणथी मांडीने सिद्ध सुधीना सर्व जड चेतन
पदार्थो स्वतंत्र छे; एक पदार्थने बीजा पदार्थ साथे जरापण संबंध ज नथी, तो पछी गमे तेवा निमित्त पदार्थ होय
तोपण ते उपादानने शुं करे? उपादान पोते जे प्रकारे परिणमे ते प्रकारे पर पदार्थमां निमित्तनो आरोप आवे छे.
निमित्त तो आरोप मात्र छे, तेनी उपादानमां तो नास्ति छे; अस्ति–नास्तिरूप आवुं अनेकान्त वस्तुस्वरूप छे;
परंतु एक पदार्थ बीजा पदार्थमां कांई करे एवी मान्यतामां तो पदार्थोनी स्वतंत्रता रहेती नथी अने एकांत थई
जाय छे. माटे उपादान–निमित्तना संवादद्वारा जे वस्तु स्वरूप समजाववामां आव्युं छे ते जाणीने हे भव्य जीवो तमे
खेदने छोडो, कांईक पर द्रव्यनी मदद जोईए एवी मान्यताने छोडो पोताना आत्माने पराधीन मानवो ते ज सौथी
मोटो खेद छे, हवे आत्माना स्वाधीन स्वरूपने जाणीने ते खेद तमे छोडो...केमके श्रीजिनागमनुं दरेक वचन वस्तु
स्वरूपने स्वतंत्र जाहेर करे छे, अने जीवने सत्य पुरुषार्थ करवा प्रेरे छे.