Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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।। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।।
वर्ष चोथुंआषाढ
अंक नव
संपादक
रामजी माणेकचंद दोशी
वकीलर४७३
चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा
प्रश्नः– चैतन्य स्वभाव परनुं कांई करे नहि–ए वात तो बराबर छे, परंतु एवी
श्रद्धा केम रहे? घणा माणसो मरी जता होय त्यारे ‘हुं जाणनार छुं’ एवी श्रद्धा केम
रहे?
उत्तरः– कोण श्रद्धा राखे? ए श्रद्धा कोई जड राखे के चेतन राखे? हुं चैतन्य तो
सर्वदा जाणनार ज छुं, ज्यारे ते माणसो जीवता हता त्यारे तेने जाणतो हतो अने ते
मर्यां त्यारे तेम जाण्युं. अज्ञानी एम माने के हुं तेने बचावी दउं, तोपण ते कोई परने
बचाववा समर्थ नथी. ज्ञानी के अज्ञानीने पर जीवोने बचाववानो भाव थाय, त्यां
ज्ञानी एम समजे छे के पर जीवोने बचाववा हुं समर्थ नथी अने जे शुभ लागणी थई
ते पण मारा चैतन्य स्वभावनुं कार्य नथी. मारा चैतन्य स्वभावनुं कार्य तो चैतन्य
स्वभावमां रहीने जाणवानुं ज छे, जे शुभलागणी थई तेनो पण खरेखर जाणनार छुं.
अज्ञानी एम माने छे के घणा जीवो मरी जता होय तेवे वखते तेने बचाववा ए
आपणी फरज छे, अने तेने बचाववानो शुभभाव ते चैतन्यनुं कर्तव्य छे; ए रीते
मिथ्याद्रष्टि जीव पोताने पर पदार्थनो अने विकारनो कर्ता माने छे, तेने परथी अने
विकारथी भिन्न चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा नथी. चैतन्यनो स्वभाव तो त्रण काळ त्रण
लोकने एक साथे जाणवानो छे, त्रणकाळ त्रणलोकमां शुं बाकी रही गयुं? माटे गमे तेवा
प्रसंगे पण चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा टकी रहे छे; ते श्रद्धा चैतन्यना ज आश्रये छे, परना
आश्रये नथी.
(श्री समयसार– मोक्ष अधिकार उपरना व्याख्यानोमांथी)
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वार्षिक लवाजम४पछूटक अंक
अढी रूपियाशाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्रचार आना
* आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया काठियावाड *