सुख–दुःख, उपकार–अपकार हुं करुं अने पर जीवो मारां जीवन–मरण आदि करे एवा आशय रूप अज्ञान,
आत्मस्वभावमां रमणता–लीनता करवाने बदले परमां लीनता करवारूप मिथ्याचरण, शुभाशुभ इच्छा निरोधने
तप मानवाने बदले आहारादिना त्यागमां तपबुद्धि, परवस्तु मने लाभ करी शके एवी मान्यतापूर्वकनो परमां
इष्टबुद्धिरूप राग, पर वस्तु मने नुकशान करी शके एवी मान्यतापूर्वकनो परमां अनिष्ट बुद्धिरूप द्वेष, परनी रुचि
अने स्वरूपनी अरुचिरूप क्रोध, परनुं किंचित्त मात्र नहि करी शकतो होवा छतां हुं परनुं करी दउं एवुं मान,
पंचमकाळमां धर्म–आत्मस्वभाव कठिन छे माटे न समजी शकाय तेथी बीजुं कांईक करवुं जोईए, पुण्य करतां करतां
धीमे धीमे स्वरूप प्राप्ति थइ जशे माटे हमणां तो पुण्य ज करवुं एम स्वरूपनी आड मारवारूप माया, पोतानामां
अनंत गुण भर्या छे तेनुं लक्ष चूकी परनी–पुण्यादिनी संग्रह बुद्धिरूप लोभ, रागद्वेषादि विकारोनी उत्पत्तिरूप हिंसा,
परनुं परिणमन मारे आधीन छे, एम मानवा रूप असत्य, परद्रव्य ने परभावने पोतानां मानवा रूप चोरी,
आत्मा जे एकलो ज्ञायक स्वरूप स्वतंत्र छे तेने पराधीन मानवारूप मैथुन, संयोगी भाव अने संयोगी पदार्थो मारा
छे एवी पकडबुद्धिरूप परिग्रह, देहादिनी क्रियाथी आत्मलाभ, व्यवहार रत्नत्रयथी निश्चय रत्नत्रयनी प्राप्ति–आवी
शके नहि माटे तेमना प्रत्येनो समभाव, अकषाय आत्मस्वरूपना लक्षे रागादिनी अनुत्पत्ति थवारूप स्वदया,
जगतनां सर्व द्रव्यो पूर्ण स्वतंत्र छे माटे तेना परिणमनमां मारो किंचित मात्र हाथ नथी. हुं शुद्ध चिदानंद रूप, केवळ
ज्ञायक आत्मा छुं, पर द्रव्य परमाणुमात्र मारुं नथी. हुं द्रव्ये–गुणे–पर्याये परिपूर्ण छुं तेना लक्षे शुद्धता प्रगटे छे,
इत्यादि मान्यतापूर्वक जेओ जीव्या तेओ परिपूर्ण शुद्धताने–अनंत अव्याबाध सुखने पाम्या छे. जेओ ते प्रकारे
वर्तमानमां जीवे छे ते अनंत अव्याबाध सुख पामे छे तथा भविष्यमां ते प्रकारे जीवशे ते अनंत अव्याबाध सुख
अर्पे शोभा स्थळ सकळने आत्म सौंदर्यथी ते.”