Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आषाढः २४७३ः १६७ः
श्री कुंदकुंद वाणी
अष्ट पाहुड– मोक्षप्राभृत उपर पू. सद्गुरुदेवश्रीना प्रवचनोना आधारे ता. १९–१–४७
(१) श्री पंच परमेष्टिने ओळखीने तेना स्मरण–वंदनादिथी विघ्न टळे छे, एम कह्युं छे, त्यां विघ्न एटले
बहारना संयोग न समजवा, पण आत्मामां ते वखते तीव्र कषाय टळी जाय छे, तीव्र कषाय ते ज विघ्न छे, ते विघ्ननो
पंच परमेष्टिना स्मरणथी नाश थाय छे. पंच परमेष्टिनुं ध्यान करवा छतां ते वखते बहारमां सिंह खाई जता होय एवो
संयोग पण होय. परंतु ए संयोग ते कांई विघ्न नथी. पण ते वखते पंच परमेष्टिना स्मरणथी ते संयोगनुं लक्ष छूटी
जाय छे, अने पापभाव टळी जाय छे, ते ज विघ्न टळी गया छे, बहारनो संयोग रहे के टळे तेनी साथे कांई संबंध नथी.
(२) चैतन्यनी पर्यायमां विकार थाय तेने जाणे अने ते विकाररहित चैतन्य स्वभावने जाणे त्यारे भेदज्ञान
थाय छे. देहादि जडनी क्रियाथी जुदो अने मिथ्यात्व वगेरे विकारथी रहित एवा चैतन्य स्वभावनी प्रतीत अने ज्ञान
करवां ते ज मोक्षनो प्रथम उपाय छे.
(३) एवुं सम्यक् आत्मभान थतां, परद्रव्यो प्रत्येनी जे शुभाशुभ लागणीओ थाय ते बधाने संसारनुं
कारण जाणीने, वीतरागभावना (वैराग्य) वडे ते विकारी लागणीओ छोडीने जीव निर्ग्रंथ मुनि थाय छे. अने
पोताना स्वभावना अनुभवमां स्थिर थवानुं साधन करे छे.
(४) चैतन्य आत्मधर्म सहज अने सुलभ छे. सहज एटले स्वभावमांथी प्रगटेलुं; तेमां विभावनी अपेक्षा
नथी. जे सम्यग्दर्शन अने चारित्रने दुःखदायक माने छे ते चैतन्य स्वभावने ज दुःखदायक माने छे; सम्यग्दर्शनादि तो
सुखरूप छे, सम्यक् पुरुषार्थ वडे ते प्रगटे छे.
(प) कषाय मंद पडयो ते धर्मनुं फळ नथी; प्रतिकूळता वखते तीव्र आकुळता न करे ते पण धर्मनुं कार्य नथी,
ए तो रागनी मंदता छे–कषाय छे. सत्समागमनुं फळ तो साची समजण अने सम्यग्दर्शन छे, अने त्यार पछी ज
साचो वैराग्य होय छे. सम्यग्दर्शन थतां जीवने समये समये गुणोनी विशुद्ध पर्याय वधती जाय छे, ते धर्मनुं फळ छे.
(६) भक्ति वगेरेनो शुभराग करतां करतां सम्यग्दर्शन थई जशे एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे, अने सत्ना
श्रवणनो शुभराग करतां करतां समजाशे–एम मानवुं ते पण मिथ्यात्व छे केमके तेमां शुभराग वडे सम्यग्ज्ञान
मान्युं. भेदज्ञाननो अभ्यास करतां करतां अने स्वभावनी रुचि तथा महिमा करतां करतां ज सम्यग्ज्ञान अने
सम्यग्दर्शन थाय छे.
(७) सत् स्वभावनी जाहेरातथी तथा तेना श्रवण–मननथी कदी कोईने नुकशान थाय ज नहि. सत्
स्वभावनुं कथन, सत्नुं श्रवण, सत्नुं ज्ञान अने सत्नी रुचि ते सत्नुं ज (–सम्यग्दर्शनादि शुद्ध पर्यायनुं ज)
कारण थाय; सत् स्वभावनो अभ्यास करे त्यारे सम्यग्दर्शन थाय. ते सम्यग्दर्शन पछी पण चारित्र दशा प्रगट करीने
जीव वीतरागता करे त्यारे ज मोक्ष थाय छे.
(८) दर्शन–ज्ञान स्वभावनी ओळखाण थया पछी विशेष अभ्यास वडे स्वभावनी स्थिरता करे छे त्यारे
संत–मुनिदशा प्रगटे छे, ते दशामां वस्त्रादि परिग्रहनो राग होतो नथी तेथी त्यां वस्त्रादि कांई होतुं नथी, सहजपणे
वस्त्रादि छूटी जाय छे; त्यां जे वस्त्रादि छूटी जाय छे ते तो जडनी क्रिया छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी. आत्मा तो स्वरूप
स्थिरतारूप क्रियानो ज कर्ता छे अने ते ज साची मुनिदशा छे. धन्य ते मुनिदशा! जेओ रात्रि अने दिवस निरंतर
स्वरूपना परम अमृतमय निराकूळ स्वादने अनुभवी रह्या छे, एक समयनां पण प्रमाद वगर केवळज्ञान स्वरूपने
साधी रह्या छे, जेमने स्वरूप साधन करतां कदी पण थाक लागतो नथी–एवा परम पुरुष श्री संत मुनिश्वर
भगवंतोना चरण कमळमां नमस्कार हो! ए परम दशा वगर मुनिदशा होय नहि.
(९) दयानी शुभ लागणी थाय तेने विकार माने, अने हुं पर जीवोने बचावुं छुं एवी मिथ्या लागणी न
होय पण ज्ञातास्वभाव ज छुं एवी प्रतीत होय ते जीवने पर जीवने मारवानो भाव न होवाथी सर्वे जीवोनी दया
पाळनार उपचारथी कहेवाय छे; खरेखर तो पोते पोताना आत्माने कषायथी बचाव्यो छे ते ज साची आत्मदया छे.
(१०) शास्त्रना शब्दो गोख्या करे तेनाथी लाभ थाय नहि; ऊल्टुं, तेमां जे शुभराग थाय तेने धर्म माने
अथवा धर्मनुं कारण माने तो ते मान्यताथी मिथ्यात्वनी पुष्टि थाय–ए नुकशान थाय. सत्शास्त्र वगेरेनो अभ्यास
करवानी ना नथी पण तेमां जे शुभराग थाय तेने धर्म न मानवो, ते रागथी खरेखर लाभ न मानवो अने पोताना
ज्ञानस्वभाव तरफ ढळीने सत्नो निर्णय करवो–ते ज अभ्यासनुं साचुं फळ छे. *