Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १६८ः आत्मधर्मः ४प
हे जीव! ज्ञानीओनो उपदेश तारा हित माटे छे
विकारीभावमां शुभ अने अशुभ एवा बे भेद व्यवहारथी छे, परमार्थे तो शुभ–अशुभ बंने एक जातना
छे, अध्यात्मशास्त्रमां तेने ‘अशुभ’ कहेवामां आवे छे. सर्वे विकार ते अशुभ ज छे. पुण्य अने पाप बंनेना फळमां
संसार ज छे. एक तरफ आखो संसार भाव अने बीजी तरफ एकलो संपूर्ण स्वभावभाव; बधोय संसारभाव
अशुभ ज छे, पछी पुण्य हो के पाप हो, पण ते शुभ नथी. अने स्वभावभाव ते ज निश्चयथी शुभ छे, तेने ज शुद्ध
कहेवाय छे, अने ते ज धर्म छे. अशुभभाव ते ज अधर्म छे. अने तेमां पुण्य–पाप बंनेनो समावेश थई जाय छे.
जीवोने पुण्यभाव छोडावीने पापभाव कराववा माटे ज्ञानीओ पुण्य–पाप समान कहेता नथी, परंतु जे जीवो
धर्मना जीज्ञासु छे तेमने ज्ञानीओ समजावे छे के हे भाई, आ पुण्य अने पाप ए बंने भावोथी तने बंधन थाय छे–
दुःख थाय छे, अने तारो स्वभाव तो ए पुण्य–पाप बंनेथी रहित सिद्ध जेवो शुद्ध छे, एवा तारा शुद्धस्वभावने तुं
समज अने तेनी प्रतीत कर तो तने धर्म थाय, अने तारूं अविनाशी आत्मकल्याण थाय. परंतु स्वभावने समज्या
वगर पाप घटाडीने पुण्य कर तो तेटलाथी तारूं बंधन टळी जतुं नथी. अने तेनाथी तारूं हित थतुं नथी. हे भाई, तुं
जे पुण्यने सारा मानी रह्यो छो ते पुण्य तो तें अनंतवार कर्या, परंतु तेनाथी तारूं आत्मकल्याण थतुं नथी, माटे
आत्मकल्याणनो साचो उपाय पुण्य नथी पण पुण्यथी जुदो कोई उपाय छे, एम समजीने तुं तारा आत्मस्वभावनी
ओळखाणनो मार्ग ले, अने पुण्यने आत्मकल्याणनो उपाय, कारण के हेतु न मान.
हे भव्य! पुण्यथी धर्म नथी अने जडनी क्रिया आत्मा करी शकतो नथी इत्यादि प्रकारे उपदेश आपीने
ज्ञानीओ तने तारा हितनो उपाय दर्शावे छे. अने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप सत्धर्ममां तने लगाडवा मागे छे,
पण कांई धर्मथी छोडाववा अने तारूं अहित करवा माटे ज्ञानीओ उपदेश करता नथी.
भले पुण्य भाव थाय अने पाप भाव पण थई जाय, परंतु तुं एटलुं तो अवश्य समज के ते पुण्य–पाप
बंने विभाव छे, तेनाथी आत्मा बंधाय छे, माटे ते भावोमां मारूं हित नथी. मारा आत्मस्वभावमां पुण्य–पाप
नथी. आम स्वभाव अने विभावना भिन्नपणानी श्रद्धा तथा ज्ञानने टकावी राखीश तोपण तारा अवतारनो
अल्पकाळे अंत आवी जशे. पण जो पुण्यमां ज हित मानी लईश तो कदी पण तारा अवतारनो अंत आवशे नहि.
तुं तारा आत्मामां विचारी जो के पुण्य तो बंधन छे अने बंधननुं फळ तो संसार ज छे, तो पछी जेनुं फळ संसार छे
तेनाथी आत्महित केम थाय?
तेवी ज रीते जड शरीरनी क्रियाथी धर्म न थाय–एम सत्य समजावीने कांई ज्ञानीओ तने धर्मथी छोडाववा
नथी मागता, पण तने सत्यधर्ममां लगाडे छे. जड शरीरनी क्रिया हुं करूं अने तेनाथी मने धर्म थाय एम मानीने तुं
तारा आत्मानी साची क्रियाने भूली रह्यो छो. तुं विवेकथी जो तो खरो के तुं चैतन्यस्वरूपी आत्मा छो, शुं तारो धर्म
जडनी क्रियामां होय? तुं जडनी क्रियामां धर्म मानीने अने विकार भावमां धर्म मानीने क्षणे क्षणे तारूं अपार अहित
करी रह्यो छो, तेथी ज्ञानीओने तारी करुणा आवे छे अने तने तारा परम हितनो सत्य मार्ग दर्शावे छे.
ज्ञानीओनो
उपदेश तारा हित माटे ज छ
–तेथी हे भव्य जीव! तुं तेनो विरोध न कर, पण पात्र थईने शांतिथी तारा
आत्मकल्याणने खातर ज्ञानीओ जे उपाय कहे छे ते समजवानो प्रयत्न कर...ए माटे ज्ञानीने ओळखीने तेमना
शरणे अर्पाई जा–एम करवाथी अवश्य तारी भवबंधननी बेडी तूटी जशे.
आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं, ज्ञाननो उघाड थयो, जैन शासन मळ्‌युं अने सत्समागमनी प्राप्ति थई, आवा
प्रसंगे पोताना आत्मानी ओळखाण नहि करे तो पछी क्यारे करशे? आत्मस्वभावना परम शांत आनंदनी
ओळखाण अने अनुभव न थाय तो जीवनना लहावा शुं? जैन शासनमां आवीने पण जो आत्मानी ओळखाणनो
साचो मार्ग न ल्ये तो मानवजीवन मळ्‌युं शुं कामनुं? रण–अटवीना थाकथी थाकीने सरोवरना किनारे आव्यो ते
पाणी पीधा वगर केम पाछो जाय? तेम हे भाई! जो तुं जन्म–मरणना फेराथी थाकयो हो अने ते दुःखथी छूटीने जो
तारे आत्मिक सुखनो अनुभव करवो होय तो ज्ञानी पुरुषोनी शीतळ छायामां तुं विश्राम ले. संत पुरुषना समागमे
तुं आत्मानो अभ्यास कर, तेथी अवश्य तने धर्मनी प्राप्ति थशे अने तारूं अविनाशी हित थशे. * * * * *