Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आषाढः२४७३ः १६९ः
परमानंद स्तोत्र
(आ परमानंद स्तोत्र रचनार कोण छे ते
जाणवामां आव्युं नथी; मात्र २४ श्लोकोमां ज रचनारे
परमानंदनुं स्वरूप अने तेनी प्राप्तिनी प्रेरणानुं सुंदर
विवेचन कर्युं छे. तेमां नीचेना विषयोनो समावेश थाय
छे–
१. आत्मानुं स्वरूप अने ते कोण देखी शके?
(श्लोक १, १० तथा १३ थी १९)
२. निज परमात्मदर्शननी प्रेरणा (श्लोक २) ३.
परमानंद स्वरूप आत्मानुं लक्षण (श्लोक ३) ४. केवा
विचार योग्य छे?(श्लोक ४) प. ज्ञानरूपी सुधारसनुं
पान कोण करे? अने केवी रीते करे? (श्लोक प) ६.
पंडित कोण अने ते शुं करे? (श्लोक ६ तथा २० थी
२४) ७. शरीरमां आत्मा केवी रीते रहेलो छे अने तेनुं
स्वरूप केवुं छे? (श्लोक ७–८) ८. आत्मा आनंद स्वरूप
छे, पण ध्यानहीन पुरुष तेने देखी शकतो नथी, जेम
जन्मांधपुरुष सूर्यने देखतो नथी तेम. (श्लोक ९) ९.
आत्मानुं ध्यान करवाथी शुं थाय छे? (श्लोक ११–१२)
आ श्लोको अध्यात्मरसपूर्ण अने सहेलाईथी याद राखी
शकाय तेवा होवाथी अहीं आपवामां आवे छे–)
(अनुष्टुप)
परमानंदसंयुक्तं, निर्विकारं निरामयम्।
ध्यानहीना न पश्यन्ति, निजदेहे व्यवस्थित्म्।।१।।
अर्थः– परमानंद संयुक्त, रागादिक विकारोथी
रहित अने रोगोथी पर एवो परम आत्मा पोताना
देहमां ज बिराजमान छे, पण ध्यानहीन पुरुष तेने देखी
शकतो नथी, अर्थात् ध्यानना अभ्यास वडे ते देखाय छे.
अनंतसुखसंपन्नं, ज्ञानामृत पयोधरम्।
अनंतवीर्य संपन्नं, दर्शनं परमात्मनः।।२।।
अर्थः– अनंत सुखथी भरपूर, ज्ञानामृतना
समुद्ररूप अने अनंत शक्ति युक्त एवा परमात्म
स्वरूपनुं दर्शन करवुं जोईए–तेनुं ज अवलोकन करवुं
जोईए.
निर्विकारं निराबाधं, सर्वसंग विवर्जितम्।
परमानंद संपन्नं, शुद्ध चैतन्य लक्षणम्।।३।।
अर्थः– रागादिक विकारो रहित, सर्व प्रकारनी
बाधाओथी मुक्त, सर्व संयोगोथी रहित, परमानंदमय
शुद्ध चैतन्य लक्षणथी आत्मस्वभावने ओळखवो
जोईए.
उत्तमा स्वात्मचिंतास्यान्मोहचिंता च मध्यमा।
अधमा कामचिंता स्यात्, परचिंताऽधमाऽधमा।।४।।
अर्थः– पोताना आत्माना उद्धारनो विचार
करवो ते उत्तम छे, आत्माना शुद्धभावने लक्षे
शुभभावनो विचार करवो ते मध्यम छे, काम–भोगना
विचार करवा ते अधम छे अने बीजा जीवोनुं अहित
करवानो भाव करवो ते अधमाधम छे.
निर्विकल्प समुत्पन्नं ज्ञानमेव सुधारसम्।
विवेकमंजुलिं कृत्वा तत्पिबंति तपस्विनः।।५।।
अर्थः– संकल्प विकल्पना नाशथी
निर्विकल्पदशामां उत्पन्न थतो जे ज्ञानरूपी सुधारस तेने
भाव मुनिओ सम्यग्ज्ञानरूपी अंजलि वडे पीवे छे.
सदानन्दमयं जीवं यो जानाति स पंडितः।
स सेवते निजात्मानं परमानन्दकारणम्।।६।।
अर्थः– सदा आनंदमय जीव स्वभावने जे जाणे
छे ते ज पंडित छे, अने परमानंददशानुं जे कारण छे
एवा पोताना आत्मानुं ते सेवन करे छे.
नलिन्यां च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा।
अयमात्मा स्वभावेन देहे तिष्ठति निर्मलः।।७।।
अर्थः– जेम कमळपत्र अने पाणी सदाय जुदा
ज रहे छे तेम शरीरना संयोगमां रहेलो आ आत्मा
पोताना स्वभावथी निर्मळ छे अने शरीर, कर्मो तथा
रागादि मळथी सदा अलिप्त रहे छे.
द्रव्यकर्म मलैर्मुक्तं भावकर्म विवर्जितम्।
नोकर्म रहितं विद्धि निश्चयेन चिदात्मनः।।८।।
अर्थः– आ चैतन्य आत्मानुं स्वरूप खरेखर
ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मथी भिन्न, रागादि भाव कर्मोथी
रहित अने शरीरादि नोकर्मथी रहित छे, तेने यथार्थपणे
जाणवुं जोईए.
आनंदं ब्रह्मणो रूपं निजदेहे व्यवस्थितम्।
ध्यान हीना न पश्यन्ति जात्यन्धा इव भास्करम्।।९।।
अर्थः– आनंदस्वरूप आत्मा पोताना शरीरमां
ज बिराजी रह्यो छे; परंतु जेम सूर्य प्रगट प्रकाशमान
होवा छतां जन्मथी ज आंधळो पुरुष तेने देखतो नथी
तेम ध्यान हीन पुरुष पोताना आनंदस्वरूप आत्माने
देखतो नथी. एटले के ध्यानना अभ्यास वडे ते
सहजपणे देखावा योग्य छे.