Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १७०ः आत्मधर्मः ४प
तद्धयानं र्क्रिर्यते भव्यैर्मनोयेन विलीयते।
तत्क्षणं द्रश्यते शुद्धं चिच्चमत्कार लक्षणम्।।१०।।
अर्थः– पोताना परमात्मस्वरूपनुं ध्यान
करवाथी भव्य जीवोनुं मन विलय पामे छे. जे समये
आवुं ध्यान थाय छे ते ज समये चैतन्य चमत्कार
लक्षणस्वरूप शुद्ध आत्मा देखाय छे.
(उपजाति)
ये ध्यानशीला मुनयः प्रधानास्तेदुखहीना नियमाद्भवन्ति।
सम्प्राप्य शीघ्रं परमात्मतत्त्वम् व्रजन्ति मोक्षं क्षणमेकमेव।।११।।
अर्थः– जे मुनिओ आत्मध्यान करवाना
स्वभाववाळा ज छे ते मुनिराजो नियमथी अल्पकाळमां
सर्व दुःखरहित थई जाय छे, तथा ध्यानवडे शीघ्र
परमात्म तत्त्वने पामीने एक क्षण मात्रमां मोक्षदशा
प्राप्त करे छे.
आनन्दरूपंपरमात्मतत्त्वम् समस्त संकल्पविकल्पमुक्तम्।
स्वभावलीना निवसन्ति नित्यम् जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम्।।१२।।
अर्थः– आ आनंद स्वरूप अने समस्त संकल्प
विकल्पथी रहित परमात्म तत्त्व छे; योगीओ स्वयमेव ते
तत्त्वने जाणे छे, अने पोताना स्वभावमां नित्य लीन
रहे छे.
चिदानंदमयं शुद्धं निराकारं निरामयम्।
अनंतसुखसंपन्नं सर्वंसंगविवर्जितम्।।१३।।
लोकमात्रप्रमाणोऽयं निश्चये न हि संशयः।
व्यवहारे तनूमात्रः कथितः परमेरैः।।१४।।
अर्थः– आ परम आत्मानुं स्वरूप ज्ञान–
आनंदमय, शुद्ध, जडना आकार रहित, रोग रहित,
अनंत सुखस्वरूप अने सर्वे संयोगथी भिन्न छे,
निश्चयथी ते लोकाकाशनी बराबर असंख्यप्रदेशी छे–तेमां
संशय नथी, तथा व्यवहारे (–वर्तमान हालतमां) शरीर
प्रमाणे आकारवाळो छे.–आत्मानुं आवुं स्वरूप परमेर
जिनदेवे कह्युं छे.
यत्क्षणं द्रश्यते शुद्धं तत्क्षणं गतविभ्रमः।
स्वस्थचितः स्थिरीभूत्वा निर्विकल्प समाधिना।।१५।।
अर्थः– आ जीव पोताना शुद्ध आत्माने जे क्षणे
देखे छे ते ज क्षणे तेनो विभ्रम नाश थाय छे अने
स्वस्थचित्त थाय छे अर्थात् ज्ञान आकुळतारहित स्थिर
थाय छे, अने निर्विकल्प समाधिने पामे छे.
स एव परमं ब्रह्म स एव जिनपुंगवः।
स एव परमं तत्त्व स एव परमोगुरुः।।१६।।
स एव परमंज्योतिः स एव परम तपः।
स एव परमं ध्यानं स एव परमात्मनः।।१७।।
स एव सर्व कल्याणं स एव सुखभाजनम्।
स एव शुद्धचिद्रूपं स एव परमः शिवः।।१८।।
स एव परमानन्दः स एव सुख दायकः।
स एव परचैतन्यं स एव गुण सागरः।।१९।।
अर्थः– योगीओने पोताना ध्यान वखते जे
शुद्ध आत्मा देखाय छे ते ज परमब्रह्म छे, ते ज जिन छे,
ते ज परम तत्त्व छे, ते ज परम गुरु छे; ते ज परम
ज्योति छे, ते ज परम तप छे, ते ज परम ध्यान छे, ते
ज परमात्मा छे; ते ज सर्व कल्याणरूप छे, ते ज सुखनुं
भाजन छे, ते ज शुद्ध चिद्रूप छे, ते ज परम शिव छे, ते
ज परम आनंद छे, ते ज सुखदायक छे ते ज उत्कृष्ट
चैतन्य छे अने सर्वे गुणोनो भंडार पण ते ज छे.
अर्थात् ध्यानमां अनुभवमां आवतो शुद्ध आत्मा ते ज
जीवनुं सर्वस्व छे.
परमाह्लादसम्पन्नं रागद्वेष विवर्जितम्।
अर्हन्तं देहमध्ये तु यो जानाति स पंडितः।।२०।।
अर्थः– उपर कह्या मुजब परम आहलाद
स्वरूप अने राग–द्वेष रहित एवा पोताना अर्हंत
स्वरूपने शरीररूपी मंदिरमां ज बिराजमान जे जाणे छे
ते ज पंडित छे.
आकाररहितं शुद्धं स्वस्वरूपव्यवस्थितम्।
सिद्धमष्टगुणोपेतं निर्विकार निरंजनम्।।२१।।
तत्सद्रशं निजात्मानं प्रकाशाय महीयसे।
सहजानंदचैतन्यं यो जानाति स पंडितः।।२२।।
अर्थः– सिद्ध भगवान वर्णादिरूप आकार
छे.
पाषाणेषु यथा हेम दुग्धमध्ये यथा धृतम्।
तिल मध्ये यथा तैलं देह मध्ये तथा शिवः।।२३।।
काष्टमध्ये यथा वह्नि शक्तिरूपेण तिष्ठति।
अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पंडितः।।२४।।
अर्थः– जेम सुवर्णपाषाणमां सोनुं रहेलुं छे,
जेम दूधमां शक्तिपणे घी रहेलुं छे अने जेम तलमां तेल
रहेलुं छे तेम शरीरमां शिवस्वरूप आत्मा रहेलो छे.
अर्थात् पोतानो आत्मा ज शक्तिथी भगवान छे. वळी
जेम लाकडामां अग्नि शक्तिरूपे रहेलो छे तेम शरीर
मध्ये बिराजमान आ आत्मा शक्तिरूपे भगवान छे.
एवा आत्माने जे जाणे छे ते ज पंडित छे.
आ स्तोत्रमां दर्शावेला परमानंद स्वरूप
आत्माने अने तेनी प्राप्तिना उपायने जाणीने आत्मार्थी
जीवो परमानंदने पामो. *