तत्क्षणं द्रश्यते शुद्धं चिच्चमत्कार लक्षणम्।।१०।।
आवुं ध्यान थाय छे ते ज समये चैतन्य चमत्कार
सम्प्राप्य शीघ्रं परमात्मतत्त्वम् व्रजन्ति मोक्षं क्षणमेकमेव।।११।।
सर्व दुःखरहित थई जाय छे, तथा ध्यानवडे शीघ्र
परमात्म तत्त्वने पामीने एक क्षण मात्रमां मोक्षदशा
प्राप्त करे छे.
स्वभावलीना निवसन्ति नित्यम् जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम्।।१२।।
तत्त्वने जाणे छे, अने पोताना स्वभावमां नित्य लीन
रहे छे.
अनंतसुखसंपन्नं सर्वंसंगविवर्जितम्।।१३।।
लोकमात्रप्रमाणोऽयं निश्चये न हि संशयः।
व्यवहारे तनूमात्रः कथितः परमेरैः।।१४।।
अनंत सुखस्वरूप अने सर्वे संयोगथी भिन्न छे,
निश्चयथी ते लोकाकाशनी बराबर असंख्यप्रदेशी छे–तेमां
संशय नथी, तथा व्यवहारे (–वर्तमान हालतमां) शरीर
प्रमाणे आकारवाळो छे.–आत्मानुं आवुं स्वरूप परमेर
जिनदेवे कह्युं छे.
स्वस्थचितः स्थिरीभूत्वा निर्विकल्प समाधिना।।१५।।
स्वस्थचित्त थाय छे अर्थात् ज्ञान आकुळतारहित स्थिर
स एव परमं तत्त्व स एव परमोगुरुः।।१६।।
स एव परमंज्योतिः स एव परम तपः।
स एव परमं ध्यानं स एव परमात्मनः।।१७।।
स एव सर्व कल्याणं स एव सुखभाजनम्।
स एव शुद्धचिद्रूपं स एव परमः शिवः।।१८।।
स एव परचैतन्यं स एव गुण सागरः।।१९।।
ते ज परम तत्त्व छे, ते ज परम गुरु छे; ते ज परम
ज्योति छे, ते ज परम तप छे, ते ज परम ध्यान छे, ते
ज परमात्मा छे; ते ज सर्व कल्याणरूप छे, ते ज सुखनुं
भाजन छे, ते ज शुद्ध चिद्रूप छे, ते ज परम शिव छे, ते
ज परम आनंद छे, ते ज सुखदायक छे ते ज उत्कृष्ट
चैतन्य छे अने सर्वे गुणोनो भंडार पण ते ज छे.
अर्थात् ध्यानमां अनुभवमां आवतो शुद्ध आत्मा ते ज
जीवनुं सर्वस्व छे.
अर्हन्तं देहमध्ये तु यो जानाति स पंडितः।।२०।।
स्वरूपने शरीररूपी मंदिरमां ज बिराजमान जे जाणे छे
ते ज पंडित छे.
सिद्धमष्टगुणोपेतं निर्विकार निरंजनम्।।२१।।
तत्सद्रशं निजात्मानं प्रकाशाय महीयसे।
सहजानंदचैतन्यं यो जानाति स पंडितः।।२२।।
तिल मध्ये यथा तैलं देह मध्ये तथा शिवः।।२३।।
काष्टमध्ये यथा वह्नि शक्तिरूपेण तिष्ठति।
अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पंडितः।।२४।।
रहेलुं छे तेम शरीरमां शिवस्वरूप आत्मा रहेलो छे.
अर्थात् पोतानो आत्मा ज शक्तिथी भगवान छे. वळी
जेम लाकडामां अग्नि शक्तिरूपे रहेलो छे तेम शरीर
मध्ये बिराजमान आ आत्मा शक्तिरूपे भगवान छे.
एवा आत्माने जे जाणे छे ते ज पंडित छे.
आ स्तोत्रमां दर्शावेला परमानंद स्वरूप
आत्माने अने तेनी प्राप्तिना उपायने जाणीने आत्मार्थी
जीवो परमानंदने पामो. *