आषाढः २४७३ः १७१ः
धर्मात्मा चक्रवर्ती भरतनी मुनि भक्ति
(भरत चक्रवर्ती सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा छे. पहेला तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभुना तेओ पुत्र छे, पोते पहेला चक्रवर्ती, अने ते भवे
मोक्षगामी–चरमशरीरी छे. षट्खंडनुं राज्य पालन करता होवा छतां पण भरत योगी समान रहे छे. आत्मविनोद अने आंतरिक हितचिंतन
तेना अंतरमां निरंतर रह्या करे छे. आ महान धर्मात्माना पवित्र जीवननो एक प्रसंग अहीं आपवामां आवे छे, जे उपरथी धर्मात्मा पुरुषो
राजपाटमां होवा छतां तेमनुं अंतर जीवन केटलुं अलौकिक अने अलिप्त होय छे ते जिज्ञासुओ समजी शकशे...)
मुनिओनी आहार चर्यानो समय जाणीने भरत राजमहेलना दरवाजा तरफ चाल्या...राजदरबारमांथी
आव्या पछी तेणे पोताना शरीर उपरथी समस्त राजचिह्नोने उतारी नाख्या हता. दरबारी वस्त्राभूषणोने उतारी
नाखवाथी पण शुं तेनी सुंदरतामां खामी आवी? ना. अत्यारे ते मुनिराजना आगमन माटे द्वार–प्रतीक्षा माटे जता
हता; छत्र, चामर, खड्ग, वगेरे राजचिह्नोनी तेने जरूर न हती. अत्यारे तो ते मात्र पात्र दाननी भावना करनार
एक सामान्य गृहस्थनी समान हता...
पात्रदाननी प्रतीक्षा माटे जतां तेमना डाबा हाथमां अक्षत्, पुष्प वगेरे मंगळ द्रव्यो हता अने जमणा
हाथमां पाणीनो कळश हतो. लोकोने तेमनी सख्त आज्ञा हती के मारी साथे कोई आवे नहि अने मार्गमां मने कोई
नमस्कार करे नहि. जेम कोई खजानानी भावनावाळो खजानानी पूजा करीने तेने लई आववा माटे जई रह्यो होय
तेम तपोनिधि मुनिराजने तेडी लाववा माटे भरत चक्रवर्ती जई रह्या छे. सेवकोए राजा प्रत्ये अने राजाए धर्मात्मा
गुरु प्रत्ये केवा प्रकारे विनय करवो जोईए ते नीतिवंत भरत सारी रीते जाणता हता. दान–पूजा करवी ते गृहस्थनुं
पोतानुं कर्तव्य छे, ते बीजाओ मारफत कराववुं उचित नथी एम समजीने पोते जाते ज ते कार्य करवा माटे जई रह्या
हता.
जे वखते तेओ आगळ जई रह्या हता त्यारे साथेना लोकोने पाछळ रोकी दीधा हता. आखरे रस्तो पसार
करीने राजमहेलनी बहारना चोकमां आवीने भरत महाराज उभा रह्या. अत्यारे हाथमांनो कळश तथा पूजन
सामग्री नीचे राखी दीधी छे अने वीतरागी साधुओना आगमननी खूब उत्सुकताथी प्रतीक्षा करी रह्या छे. आ
वखते भरतनी शोभा अपार हती, जाणे स्वयं इन्द्र ज मुनि भक्ति करवा माटे आवीने उभा होय!
भरत उभा उभा बहु विचार करी रह्या छे, तेमना मनमां एवा भाव रमी रह्या छे के हुं आ संसार समुद्रने
पार करीने शीघ्र मुक्ति क्यारे पामीश! जे क्षणे स्वरूप रमणता करीने मुक्ति पामुं ते क्षणने धन्य छे!
जे चोकमां भरत उभा छे तेनी त्रण बाजु त्रण राजमार्ग छे, ते त्रणे मार्गो तरफ जोई जोईने भरत शांत
भावथी मुनिओना आगमननी राह जोई रह्या छे. जेम कुमुदिनी चंद्रनी प्रतीक्षा करती होय तेम भरत मुनिओनी
प्रतीक्षा करी रह्या छे. क्यारेक आंखो वडे दूर दूरना मार्ग तरफ जुए छे अने क्यारेक ज्ञान चक्षुओ वडे शरीर स्थित
आत्मानुं निरीक्षण करी ल्ये छे. अंतरथी आत्माने अने बहारथी मुनिओना मार्गने जोतां तेमना कार्यमां कांई प्रमाद
थतो नथी.
चारे बाजु स्तब्धता फेलाई गई छे, बधा लोको जाणे छे के आ भरत महाराजानो मुनिदाननो समय छे.
केटलाक सेवको आसपासमां छूपाईने भरतना आहार दान विधिने जोवा माटे बेठा छे. भरत तेमने जोई शकता
नथी...ते योग्य ज छे,–भरत पोतानी चर्याथी एम बतावी रह्या छे के, भले आखो लोक मने जोई रह्यो छे परंतु हुं
तो लोकथी अलिप्त ज छुं. तेथी ज तेओ एकाकीपणे उभा छे. अत्यारे तेओ एवा देखाय छे के कोई आत्मविज्ञानी
पंचेन्द्रियोथी युक्त होवा छतां तेनाथी अलिप्त उदासीन छे.
आ वखते निर्मळ योगीओनोे आहारदान देवा सिवाय पोताना आहार वगेरेनी कोई चिंता तेमना चित्तमां
नथी. आ दिवसे ते नगरीमां चर्या माटे घणा योगीराज पधार्या हता परंतु रस्तामां ज घणा श्रावकोए तेमनुं
प्रतिग्रहण करी लीधुं होवाथी भरतना महेल सुधी कोई आव्या न हता. मुनिओना आगमन माटे भरत चक्रवर्ती
खूब आतूर छे. क्यारेक डाबी तरफ अने क्यारेक जमणी तरफ जुए छे परंतु क्यांय पण जिनरूप नहि देखवाथी फरी
आत्म विचारमां एकाग्र थई जाय छे.
घणो वखत थई गयो छतां दूर दूर सुधी कोई जिनमूद्रा धारक मुनिराज आवता जणाता नथी. शुं आज
कोई पर्व उपवासनो दिवस छे? आज कई तिथि छे?...ना, आज कोई पर्व के तिथि नथी...तो पण केम मुनिराज न
पधार्या? मारा महेल तरफ कोइ तपोनिधि आवता नथी तेनुं शुं कारण हशे? शुं कोइए मुनिराजनी निंदा करी? अरे,
जो एम होय तो मने षट्खंडाधिपति कोण कहेशे? मारा राज्यमां मुनि निंदा करनार मनुष्य कोई छे ज नहि...छतां
मुनिओनुं आगमन केम थतुं नथी? आह! शुं आज मुनि प्रभुनी सेवा करवानुं महाभाग्य नथी? खरेखर, एक पण
दिवसनुं अंतर पडया वगर निरंतर मुनिओने आहार दान देवुं ते महा सौभाग्यनी वात छे...