ः १७२ः आत्मधर्मः ४प
...जेम द्वीपमां जनारा वहाणमां अनेक सामान भरीने मोकलाय छे तेम मुक्तिमां जनारा मुनिओना
हस्तपात्रमां भक्तिपूर्वक आहार आपवो ते दरेक श्रावकोनुं कर्तव्य छे. आत्मा अने शरीरने भिन्न समजीने अशरीरी
आत्मस्वभावनुं ध्यान करवावाळा योगीराजने पोताना हाथथी आहार देवानुं भाग्य शुं बधाने मळे छे? पवित्र
रत्नत्रयीना धारक वीतरागी तपस्वी मुनिराज के जेओ स्वानुभवरूपी अमृतनो आहार तो आत्माने अर्पण करे छे
अने भव्यात्माओ द्वारा देवामां आवेलो अन्ननो आहार शरीरने आपे छे–एवा योगीओने भक्तिथी आहार
देनार गृहस्थ धन्य छे!! जेओ भोजन करता नथी एवा अनाहारक श्री जिनेन्द्रदेवनी मूर्ति प्रत्ये नैवेद्यादिकनी
अर्चना करीने पूजा करवी ते तो उपचार भक्ति छे, अने पोताना आत्मसाधनामां लीन एक वखत भोजन
करवावाळा जिनरूपधारी श्री गुरुओने आहार दान देवुं ते मुख्य भक्ति छे, केमके ते साक्षात् धर्मनी मूर्ति छे...
–आवा प्रकारना अनेक भक्ति भरेला विचारोमां भरत चक्रवर्ती मग्न छे, पण हजी सुधी कोई मुनिराज
आव्या नथी, तेथी भरत विशेष आतूर थाय छे. अंतरमां तेने भक्तिभाव उल्लसी रह्यो छे.
एटलामां भरतजीए एक आश्चर्यकारक घटना जोई. ऊंचे आकाशमां एक अद्भुत प्रकाश देखावा मांडयो.
आजुबाजु जोवानुं बंध करीने ते प्रकाश–कांति तरफ ज भरत महाराज जोई रह्या. अत्यारे तो ते प्रकाश दूरथी
देखाय छे. ते प्रकाश शेनो छे ते स्पष्ट जणातुं नथी. ‘आ शुं छे? बीजा सूर्य जेवो आ अद्भुत प्रकाश शेनो छे?
जिन, जिन! आ प्रकाश तो मारी तरफ ज आवी रह्यो छे, शुं हशे?” एम भरत आश्चर्य मग्न थईने जोया करे छे.
एटलामां तो ते प्रकाश एकने बदले जुदा जुदा बे थई गया. भगवन्! पहेलां एक प्रकाश हतो, ते बे थइ गया.
पहेलां सूर्य समान जणातो हवे एक सूर्य समान अने बीजो चंद्र समान एम बे जणाय छे. भरत आम विचारता
हता त्यां तो ते बंने प्रकाश नजीक आवी गया.
बंने प्रकाश नजीक आवतां भरते तेमने ओळखी लीधा. अने ओळखतां ज तेने उत्साह थयो; आह! आ
तो चारणऋद्धिना धारक मुनिराजो छे, अन्य कोई नथी.
पोताना महेलमांथी ज सूर्यना विमानमां रहेली जिनप्रतिमाओनां दर्शन करनार चक्रवर्तीने ते मुनिओने
पिछानतां आटली वार न लागत, परंतु ते दिवसे आकाश वादळथी घेरायेलुं होवाथी भरत महाराजाए बराबर
जोया पछी ज नक्की कर्युं हतुं.
मुनि महाराजोने देखतां ज भरतनी चिंता दूर थई गई, हर्षथी रोमांच उल्लसित थया. अहा! मारा
भाग्यनो उदय थयो...एम विचारीने अर्चना द्रव्योने हाथमां लईने भक्तिपूर्वक मुनिराजनी सन्मुख जवा लाग्या.
थोडी ज वारमां ते बे मुनिराजो नीचे भूमि पर उतर्या. तेमां एक चंद्रमंडळ मुनि अने बीजा सूर्यमंडळ मुनि
हता. गरीब मनुष्यने निधिओनी प्राप्ति थतां जेम ते नाची ऊठे छे तेम भरत चक्रवर्ती ते मुनिरूपी निधिओने
देखी–देखीने अत्यंत हर्षमय चित्तथी तेमनी सेवामां उपस्थित थया.
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भो मुनि महाराज! अत्र तिष्ट तिष्ट! अर्थात् हे मुनिराज प्रभो! अहीं पधारो पधारो!–ए प्रमाणे घणी
भक्तिपूर्वक चक्रवर्ती बोल्या. त्यारे बंने मुनिराज त्यां उभा रही गया. त्यारे भरतजीए पोताना हाथमां रहेल गंध,
पुष्प, अक्षतादि सामग्रीओ वडे मुनिराजना चरणोमां दर्शनांजलि दईने भावशुद्धिपूर्वक जलधारा दीधी. पछी
भक्तिथी त्रण प्रदक्षिणा दईने तेमने साष्टांग नमस्कार कर्यां. आ प्रसंगे आसपासमांथी केटलाक लोको आवीने
जयजयकार शब्द करवा लाग्या अने कहेवा लाग्या के भरत महाराज अहीं ऊभा ऊभा ध्यान करी रह्या हता, तेथी
शुं तेमना ध्यानना बळथी ज आ बंने मुनिवरो आवी गया हशे!!
धर्मात्मा भरत जे निधि लई जवा माटे आव्या हता ते निधि तेमने मळी गई, हवे अत्यंत उल्लास अने
भक्तिपूर्वक ते निधिने पोताना महेलमां लई जाय छे. भरत घणा विवेकी, अने भक्तिवंत छे. महेलमां ज्यां
मुनिओने सीडी उतरवानी आवे छे त्यां भरत तेओने पोताना हाथनो सहारो आपे छे, अने ज्यारे उपर चढवानुं
आवे छे त्यारे पण बहु ज भक्तिथी हाथनो सहारो आपे छे, अने कहे छे के–हे स्वामी! आपश्री तो आकाशमां
सहारा वगर चालनारा छो, आपने तो सहारानी कांई जरूर नथी, आ तो मात्र अमारो उपचार छे.
प्रभो! ए वात तो दूर रही, परंतु जुओ तो खरा! अमारो महेल पण आटलो वक्र छे तो अमारुं हृदय तो
केटलुं वक्र हशे!! अमारो महेल वक्र छे अने अमारुं मन पण वक्र छे, छतां पण आपश्री आपना आ शिष्य उपर
कृपा करीने अहीं पधार्या. ए धनभाग्य