छे. आपना पधारवाथी अमारो महेल अने मन बंने सीधा थई गया!
नथी.
वखते महेलमां मात्र एक भरतजीने ज नहि परंतु दरेके दरेकने एक तहेवारना दिवस समान आनंद थयो; तहेवार
तो शुं, पण मोटो महोत्सव होय तेवो उत्साह हतो. आ उत्साहमां राणीओए किन्नरवीणा वगेरे लईने
श्रीमुनिराजना गुणो अने आहारदाननो महिमा गावानुं शरू कर्युं.
पधारतां भरत महाराजाए राणीओ सहित अनेक प्रकारे तेमनी भक्ति करी, अने पोताने महा भाग्यशाळी
समज्या.
जाणीने आत्माना महिमामां ज चित्तने लगाव्युं छे ते योगीश्वरोनुं मन शुं बाह्य पदार्थो देखीने विचलीत थई शके
छे? कदापि नहि.
मुनिओए श्री सिद्धनी स्तुति कर्या बाद भरते भक्तिपूर्वक प्रसन्नताथी आहारदान कर्युं...
ते ज्ञानशीला तपस्वीओने भक्तिशील भरते अमृत अन्न आपीने तृप्त कर्या. ते वखते अनेक प्रकारनो निर्दोष
आहार, क्षीर, फळादिकने सुवर्ण–रत्नना वासणोमां लईने देतां चक्रवर्तीने जोतां तेनी पासे कल्पवृक्ष, कामधेनु के
चिंतामणी पण भूली जवातां हता. ज्यारे भरत महाराज मुनिओने आहार देता हता ते प्रसंग खरेखर दर्शनीय
हतो. स्वर्गना देवो जे अमृतनो आहार करे छे तेना जेवो पोताने माटे तैयार करेलो आहार पोताने हाथे षट्खंड
अधिपतिए मुनिओने समर्पण कर्यो–तेनुं शुं वर्णन करी शकाय? भरते भुक्ति अने भक्ति बंने वडे मुनिओने तृप्त
कर्या–एटलुं ज नहि–पण साथे साथे पोते पण तेवी मुक्तदशानी साधना माटे भावना करी. मुनिओने आहार
देवाथी भरतने अत्यंत संतोष थयो.
पण आत्मानी पुष्टि तो परम चैतन्य आनंदना अनुभव वडे ज थाय छे. भोजन समाप्ति बाद पद्मासनमां
बिराजमान थईने योगीओए मुखशुद्धि तथा हस्तप्रक्षालन कर्युं अने पछी श्रीसिद्ध स्तुति करीने तरत ज तेओए
अंतरद्रष्टि वडे आत्म अवलोकन कर्युं. योगीओनी निश्चल ध्यान मूद्रा जोईने चक्रवर्ती मनमांने मनमां अत्यंत
प्रसन्न थवा लाग्या...अत्यारे ते मुनिओ आत्मानंदमां लीन छे, तेमनो देह जरापण हलतो नथी, एक स्फटिक
रत्ननी मूर्ति समान तेओ निश्चल छे, तेओ घणी एकाग्रतापूर्वक आत्मस्वरूपने नीरखे छे...तेओने केवळज्ञान
लेवाना कोड उछळ्या छे...भरत पण तेमनी सन्मुख निस्तब्ध उभा रही गया छे,
अर्थात् तने दानना अक्षयदाननी प्राप्ति हो!’–एम श्री चंद्रमंडळ मुनिए