Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आषाढः २४७३ः १७३ः
छे. आपना पधारवाथी अमारो महेल अने मन बंने सीधा थई गया!
भरतजीना धर्मविनोदने बंने मुनिराजोए सांभळ्‌यो, अने तेनो धर्म तथा भक्तिप्रेम जोईने मनमां प्रसन्न
थया. परंतु तेओ कांई बोल्या नहि केम के मुनिओने एवी प्रतिज्ञा होय छे के भोजन कर्या पहेलां तेओ कांई बोलता
नथी.
आ प्रमाणे अति भक्तिपूर्वक भरत ज्यारे ते योगीओने महेलमां लई गया त्यारे भरतनी सर्वे राणीओ
सामे आवी अने मुनिराजना दर्शनथी तेओ रोमांचित थई; तत्क्षण तेओश्रीनी आरति उतारवामां आवी. आ
वखते महेलमां मात्र एक भरतजीने ज नहि परंतु दरेके दरेकने एक तहेवारना दिवस समान आनंद थयो; तहेवार
तो शुं, पण मोटो महोत्सव होय तेवो उत्साह हतो. आ उत्साहमां राणीओए किन्नरवीणा वगेरे लईने
श्रीमुनिराजना गुणो अने आहारदाननो महिमा गावानुं शरू कर्युं.
ज्यारे ते मुनिराजो महेलमां आवी रह्या हता त्यारे बंने बाजु राणीओ चामर ढाळती हती. सेवकना घरे
मालिक आवे तो जेम सेवक तेनी अनेक प्रकारे भक्ति करे छे तेम महात्मा संत मुनि तपस्वीओ पोताना महेलमां
पधारतां भरत महाराजाए राणीओ सहित अनेक प्रकारे तेमनी भक्ति करी, अने पोताने महा भाग्यशाळी
समज्या.
चक्रवर्ती राजा नमस्कार करे छे छतां मुनिओने अहंकारनो अंश पण थतो नथी, तेमनुं मन आत्मामां ज द्रढ
होय छे. जे योगी महात्माओए परम महिमावंत आत्मस्वभावने जाण्यो छे अने शरीरादि सर्वे बाह्य पदार्थोने तूच्छ
जाणीने आत्माना महिमामां ज चित्तने लगाव्युं छे ते योगीश्वरोनुं मन शुं बाह्य पदार्थो देखीने विचलीत थई शके
छे? कदापि नहि.
त्यारपछी ते मुनिओना पादकमलनुं प्रक्षालन करीने अमृतगृहमां (–भोजनगृहमां) तेमनुं पदार्पण कराव्युं–
त्यां ते योगीओने उच्च आसन आप्युं, अने भक्तराज भरत महाराजाए भक्तिथी तेमनी पूजा करी. त्यारपछी
मुनिओए श्री सिद्धनी स्तुति कर्या बाद भरते भक्तिपूर्वक प्रसन्नताथी आहारदान कर्युं...
दातारमां धर्मात्मा भरत उत्तम हता, पात्रोमां ते चारण मुनिश्वरो उत्तम हता. तेथी उत्तम दाताए उत्तम
पात्रोने शास्त्रमां प्रणित विधि अनुसार उत्तम दान कर्युं. दान वखते बहार वाजिंत्रोनो मंगळ ध्वनि थई रह्यो हतो.
ते ज्ञानशीला तपस्वीओने भक्तिशील भरते अमृत अन्न आपीने तृप्त कर्या. ते वखते अनेक प्रकारनो निर्दोष
आहार, क्षीर, फळादिकने सुवर्ण–रत्नना वासणोमां लईने देतां चक्रवर्तीने जोतां तेनी पासे कल्पवृक्ष, कामधेनु के
चिंतामणी पण भूली जवातां हता. ज्यारे भरत महाराज मुनिओने आहार देता हता ते प्रसंग खरेखर दर्शनीय
हतो. स्वर्गना देवो जे अमृतनो आहार करे छे तेना जेवो पोताने माटे तैयार करेलो आहार पोताने हाथे षट्खंड
अधिपतिए मुनिओने समर्पण कर्यो–तेनुं शुं वर्णन करी शकाय? भरते भुक्ति अने भक्ति बंने वडे मुनिओने तृप्त
कर्या–एटलुं ज नहि–पण साथे साथे पोते पण तेवी मुक्तदशानी साधना माटे भावना करी. मुनिओने आहार
देवाथी भरतने अत्यंत संतोष थयो.
ज्यारे ते संत मुनिओए भोजन समाप्ति करी त्यारे तेओए एवी भावना करेली के आ चैतन्य
परमात्माने माटे तो स्वात्मानंद ए ज भोजन छे. आ आहार तो जड शरीर माटे छे, तेना वडे शरीर पुष्ट थाय छे,
पण आत्मानी पुष्टि तो परम चैतन्य आनंदना अनुभव वडे ज थाय छे. भोजन समाप्ति बाद पद्मासनमां
बिराजमान थईने योगीओए मुखशुद्धि तथा हस्तप्रक्षालन कर्युं अने पछी श्रीसिद्ध स्तुति करीने तरत ज तेओए
अंतरद्रष्टि वडे आत्म अवलोकन कर्युं. योगीओनी निश्चल ध्यान मूद्रा जोईने चक्रवर्ती मनमांने मनमां अत्यंत
प्रसन्न थवा लाग्या...अत्यारे ते मुनिओ आत्मानंदमां लीन छे, तेमनो देह जरापण हलतो नथी, एक स्फटिक
रत्ननी मूर्ति समान तेओ निश्चल छे, तेओ घणी एकाग्रतापूर्वक आत्मस्वरूपने नीरखे छे...तेओने केवळज्ञान
लेवाना कोड उछळ्‌या छे...भरत पण तेमनी सन्मुख निस्तब्ध उभा रही गया छे,
ध्यान पूर्ण थतां ज्यारे मुनिओए आंखो खोलीने भरत तरफ जोयुं त्यारे भरतेश्वरे बहु उत्साह अने
भक्तिपूर्वक नमोस्तु कहीने नमस्कार कर्या.
अक्षयं दानफलमस्तु त
अर्थात् तने दानना अक्षयदाननी प्राप्ति हो!’–एम श्री चंद्रमंडळ मुनिए
आशीर्वाद आप्या, अने ‘निर्मलात्म सिद्धिरस्तु अर्थात् तने निर्मळ आत्मसिद्धिनी प्राप्ति थाव!’ एम श्री सूर्य
मंडळ मुनिए मंगळ आशीर्वाद आप्या.