ए वखते तो, जाणे साक्षात् मुक्ति ज पोताना हाथमां आवी गई होय एवा प्रकारे भरतजी नाचवा मांडया. ए ठीक
ज छे, केम के धर्मात्माओने जगतना कोई पण पदार्थो करतां पोतानी पवित्र दशानी प्राप्ति माटेनो उल्लास अपूर्व
होय छे.
आकाशमां रहीने भरतना दाननी प्रशंसा करवा लाग्या के–आ दान उत्तम छे, दाता उत्तम छे अने पात्र तो
उत्तमोत्तम छे. हे भरत! स्वर्गमां पण अमने तारा जेवुं महाभाग्य नथी. जे सौभाग्य अने संपत्ति अज्ञ मनुष्योने
मदनुं कारण बने छे तेणे तने तो स्पर्श पण कर्यो नथी. तुं भोगी नथी पण राजयोगी छो. भोगोथी अलिप्त छो,
भोगोमां मूर्छा तने आवी नथी. ए प्रकारे भरतनो महिमा गायो. ए योग्य ज छे केम के धर्मात्माओना धार्मिक
गुणोनो महिमा लावीने तेनी प्रशंसा करवी ते आत्मार्थीओनुं चिह्न छे. छेवटे, ‘धर्म साम्राज्यनुं चिर काळ पालन
करो’ एवा आशीर्वाद आपीने देवो अंतर्ध्यान थया.
मुनिओने आहार दान देवानो केटलो महिमा छे ते समजाशे. अहीं पंचाश्चर्य घटना वगेरे भरतना दाननो प्रत्यक्ष
महिमा सूचित करे छे.
कह्युं के तमे रोकाई जाओ. परंतु भरते तेमने सविनय निवेदन कर्युं के ‘आपश्री पधारो– एम कहीने तरत ज भरते
वैक्रियिक शक्तिथी पोताना बे रूप बनावी लीधा अने बंने रूपोथी बंने मुनिराजोने हाथमां धरीने चलाववा लाग्या
अर्थात् जेम जेम मुनिराजो डग भरे तेम तेम तेमना चरणो नीचे पोताना हाथने धरता जता हता, अने तेओना
चरणने जमीन पर पडवा देता न हता. थोडे दूर जतां फरीथी मुनिओए कह्युं–हवे रोकाई जाव. भरते कह्युं–
‘स्वामीन्! मने हजी थोडी सेवा करवा दो. आप पधारो.’
कहो छो...ए शुं उचित छे!!! एम कहीने भरत तेओना चरणमां नमी पडया.
फरवानी इच्छा भरतने थती न हती, ए यथार्थ ज छे...जेओ सतत्, आत्मानुभव करी रह्या छे एवा परम संत
योगीरत्नोने छोडीने जवानुं कोण मोक्षगामी जीव इच्छे!
भरत त्यां उभा उभा एकीटशे तेमनी तरफ जोई गया. आकाशमां तेओ चंद्र अने सूर्य जेवा देखाता हता. ज्यां सुधी
नजर पडी त्यां सुधी भरत घणी उत्सुकताथी तेमना तरफ जोई रह्या अने ज्यारे तेओ देखाता बंध थया त्यारे उदास
चित्ते पोताना महेल तरफ पाछा फर्या...