Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १७४ः आत्मधर्मः ४प
श्री चारण मुनिओना आवा महा पवित्र आशीर्वाद पामीने ते वखते धर्मात्मा भरतना हृदयमां केटलो
आह्लाद थई गयो हशे–ए तो परमात्मा ज जाणे! अहा! आ प्रसंगे आत्मार्थीओनो उल्लास अंतरमां केम शमाय!
ए वखते तो, जाणे साक्षात् मुक्ति ज पोताना हाथमां आवी गई होय एवा प्रकारे भरतजी नाचवा मांडया. ए ठीक
ज छे, केम के धर्मात्माओने जगतना कोई पण पदार्थो करतां पोतानी पवित्र दशानी प्राप्ति माटेनो उल्लास अपूर्व
होय छे.
भरतेशनी दानचर्याथी ते वखते देवो पण प्रसन्न थया, ते हर्षमां तेओए नर्तन कर्युं. अने ते वखते १–
सुगंधी पवन, २–पुष्पवृष्टि, ३–सुवर्णवृष्टि, ४–वाद्यध्वनि अने प–जय जयकार– ए पांच आश्चर्य प्रगट कर्या, तथा
आकाशमां रहीने भरतना दाननी प्रशंसा करवा लाग्या के–आ दान उत्तम छे, दाता उत्तम छे अने पात्र तो
उत्तमोत्तम छे. हे भरत! स्वर्गमां पण अमने तारा जेवुं महाभाग्य नथी. जे सौभाग्य अने संपत्ति अज्ञ मनुष्योने
मदनुं कारण बने छे तेणे तने तो स्पर्श पण कर्यो नथी. तुं भोगी नथी पण राजयोगी छो. भोगोथी अलिप्त छो,
भोगोमां मूर्छा तने आवी नथी. ए प्रकारे भरतनो महिमा गायो. ए योग्य ज छे केम के धर्मात्माओना धार्मिक
गुणोनो महिमा लावीने तेनी प्रशंसा करवी ते आत्मार्थीओनुं चिह्न छे. छेवटे, ‘धर्म साम्राज्यनुं चिर काळ पालन
करो’ एवा आशीर्वाद आपीने देवो अंतर्ध्यान थया.
मुनिओने आहार दान देवानो घणो महिमा छे, तेमां पण आद्य चक्रवर्तीना दाननो महिमा अपार छे. एवो
नियम छे के श्री तीर्थंकरोने मुनिदशामां जे सर्व प्रथम आहार दान करावे ते तद्भव मुक्तिगामी होय. आ उपरथी
मुनिओने आहार दान देवानो केटलो महिमा छे ते समजाशे. अहीं पंचाश्चर्य घटना वगेरे भरतना दाननो प्रत्यक्ष
महिमा सूचित करे छे.
‘जिन शरण’ शब्दनुं उच्चारण करीने ते जिन मुनिओ त्यांथी जवा माटे उभा थया, ते ज वखते भरत
पण ‘मने आपनुं ज शरण छे’ एम कहीने तेओनी पाछळ जवा लाग्या. थोडे दूर गया बाद ते मुनिओए भरतने
कह्युं के तमे रोकाई जाओ. परंतु भरते तेमने सविनय निवेदन कर्युं के ‘आपश्री पधारो– एम कहीने तरत ज भरते
वैक्रियिक शक्तिथी पोताना बे रूप बनावी लीधा अने बंने रूपोथी बंने मुनिराजोने हाथमां धरीने चलाववा लाग्या
अर्थात् जेम जेम मुनिराजो डग भरे तेम तेम तेमना चरणो नीचे पोताना हाथने धरता जता हता, अने तेओना
चरणने जमीन पर पडवा देता न हता. थोडे दूर जतां फरीथी मुनिओए कह्युं–हवे रोकाई जाव. भरते कह्युं–
‘स्वामीन्! मने हजी थोडी सेवा करवा दो. आप पधारो.’
थोडे दूर जतां फरीथी मुनिओए कह्युं–हे भरत! हवे पाछो जा, आगळ न आवीश. भरते नम्रभावे कह्युं–
भगवन्! आपने तो उचित छे के भक्तने बोलावीने तेनो उद्धार करो...परंतु आप तो मने आगळ न आववानुं
कहो छो...ए शुं उचित छे!!! एम कहीने भरत तेओना चरणमां नमी पडया.
भरतनो विनय अने तेनी भावना जोईने मनमां प्रसन्न थईने मुनिराजो आगळ जवा लाग्या. भरत पण
तेमनी पाछळ जवा लाग्या. ए रीते ते मुनिओनी साथे शहेरना छेल्ला दरवाजा सुधी भरत गया, त्यांथी पण पाछा
फरवानी इच्छा भरतने थती न हती, ए यथार्थ ज छे...जेओ सतत्, आत्मानुभव करी रह्या छे एवा परम संत
योगीरत्नोने छोडीने जवानुं कोण मोक्षगामी जीव इच्छे!
भरत हजी पण पाछा जता नथी एम जाणीने मुनिओए कह्युं के हे भरत! हवे तारा भोजननुं मोडुं थाय
छे, हवे तुं पाछो फर. भगवान श्री आदिनाथनी आज्ञा छे के तुं पाछो फर.
भरत त्यां ज उभा रही गया अने अत्यंत भक्तिपूर्वक ते तपस्वीओने नमस्कार कर्या. अने पोताना बे
रूपने एक करी लीधुं. वीतरागी तपस्वीओए पण तेने आशीर्वाद दीधा अने तेओ आकाश मार्गे विहार करी गया.
भरत त्यां उभा उभा एकीटशे तेमनी तरफ जोई गया. आकाशमां तेओ चंद्र अने सूर्य जेवा देखाता हता. ज्यां सुधी
नजर पडी त्यां सुधी भरत घणी उत्सुकताथी तेमना तरफ जोई रह्या अने ज्यारे तेओ देखाता बंध थया त्यारे उदास
चित्ते पोताना महेल तरफ पाछा फर्या...
धन्य ते वीतरागी मुनिदशा अने
धन्य ते धर्मात्मा भरतेशनी मुनि भक्ति!
(भरतेशवैभव–भाग १ पा ३२ थी ४प ना आधारे)