Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आषाढः२४७३ः १७पः
धर्म करवानी रीत
(ता. ३०–४–४७ वैशाख सुद १० ना रोज पंचास्तिकाय गाथा ४८ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान)
आचार्यदेव जीवनुं स्वरूप वर्णवे छे. द्रव्य अने तेना गुण जुदा नथी पण एकतारूप छे. आत्माना ज्ञानादि
अनंत गुणो आत्मामां छे. तुं आत्माना ज्ञानादि गुणोने बहारथी शोधीश तो ते नहि मळे. बहारना लक्षे आत्माना
गुणो प्रगटशे नहि. ज्ञानादि गुण तो आत्माना छे, ते आत्मा साथे एकरूपे छे माटे आत्मा तरफ ढळीने ए गुणोने
शोध. पुण्य–पापमां शोधीश तो त्यां तारा गुण नहि मळे. बहारनी कोई क्रियामां तारा ज्ञानादि गुणो नथी. पण
ज्ञान अने आत्मानी एकता जाणीने ज्ञान गुणपणे परिणमवुं ते ज धर्म छे.
ज्ञानीवस्तु आत्मा छे अने ज्ञान तेनो गुण छे. ए गुणीमां ज गुणने शोध अने गुणमां ज गुणीने शोध. जे
बहारमां गुण गुणीने शोधे ते मिथ्याद्रष्टि छे. आत्मा तो ज्ञान गुणमां छे, पण रागादिमां आत्मा नथी. अने ज्ञान
गुण तो आत्मामां छे पण रागादिमां नथी. माटे तारा स्वभावमां गुण–गुणीनी एकताना लक्षे तारा गुणो प्रगटे छे.
आत्मा त्रिकाळ ज्ञान स्वभावरूप छे. ज्ञान अने आत्माने भेद नथी पण एकता छे. जो ज्ञान गुणथी
चैतन्यने सर्वथा भिन्न मानवामां आवे तो ज्ञान वगर आत्मा जड ठरे, अने आत्मा वगर ज्ञानगुण जड ठरे.
एटले के जो ज्ञान अने आत्माने सर्वथा भिन्न मानो तो चैतन्य स्वरूप आत्मानी हयाति ज न रहे. माटे गुण–
गुणीनी एकता ओळखीने, जो ज्ञानगुणने आत्मामां शोधे अने आत्माने ज्ञानगुणमां शोधे–ए रीते गुण–
गुणीनी एकता तरफ अंतर्मुख थईने झूकाव करे तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागी गुणो प्रगटे.
‘वीतरागी गुणो’ प्रगटे एनो अर्थ एम समजवो के जेवा शुद्ध गुणो छे तेवी ज तेने अनुसरती शुद्ध पर्याय
प्रगटे छे अने रागरहित छे.
आत्मामां ज्ञानादि गुणो अनादि अनंत छे–एम प्रतीत करीने जो अंतर्मुख अवलोकीश तो ज्ञान–शांति
पामीश. पण जो ज्ञान आनंद वगेरे गुणो एकरूपे छे तेनी प्रतीत नहि कर तो कोना लक्षे ज्ञान आनंद प्रगट करीश?
जो आत्मामां ज्ञान–आनंद वगेरे गुणो त्रिकाळ न होय तो ज्ञान–आनंद वगर आत्माने जडपणुं ठरे. अने जो ज्ञान
आनंदमां सदाय आत्मा न होय तो आत्मा वगर ते ज्ञानादि गुणो जड थई जाय, अने ते गुणो कोना आश्रये रहे?
बटाटानी एक नानी कटकीमां अनंत जीवो छे अने ते दरेक जीवोमां पोतपोताना ज्ञान–आनंदादि अनंत
गुणो त्रिकाळ छे. भले अवस्था तद्न हीन होय छतां तेना अनंत गुणोथी तेनी एकता तूटी नथी.
कोई एम पूछे के–अनंत आत्मा अने तेना अनंत गुणोनो निर्णय शी रीते थाय? तेनो उत्तर ए छे के जे
ज्ञान वडे पोते पोताना आत्मामां गुण–गुणीनी एकतानो निर्णय करे छे ते ज्ञानमां अनंत आत्माओना स्वरूपनो
पण निर्णय आवी जाय छे. एक आत्मामां अनंत गुणो छे तेनो निर्णय करवानुं सामर्थ्य ज्ञाननी अवस्थामां छे.
अरूपी वस्तुओनो पण निर्णय करवानुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे. जो एक क्षण पण ज्ञानादि अनंत गुणोने आत्माथी जुदा
माने तो त्रणेकाळे आत्माने गुणोथी रहित मान्यो अने अनंत आत्माओ छे ते दरेकने तेमना अनंत गुणोथी जुदा
मान्या तेथी ते मान्यता मिथ्या छे. एक क्षणमां पोताना आत्मानी ऊंधी मान्यता करी तेमां एकना ऊंधा निर्णयमां
अनंतनो ऊंधो निर्णय आवी जाय छे. तेवी ज रीते एक आत्माना निर्णयमां अनंत आत्माओना स्वरूपनो सवळो
निर्णय थई जाय छे.
अंतर स्वभावमां गुणगुणीनी एकता छे तेना ज अंतर आश्रये गुण प्रगटे छे, ए अंतर आश्रय न करे
अने कोई पण क्षणे पुण्यथी, बहारना त्यागथी, उपवासमां आहार न लीधो अने शरीर दूबळुं पडी गयुं तेथी,
अथवा तो स्त्रीनो संग छोडी दीधो तेथी, इत्यादि कोईपण बहारना आश्रये आत्माना गुण प्रगटे एम माने तो त्रणे
काळे अंतर आत्माने गुणोथी भिन्न मान्यो छे. तेणे पोताना ऊंधा अभिप्रायथी आत्मानो ऊंधो निर्णय कर्यो,
एकना ऊंधा निर्णयमां अनंतनो ऊंधो निर्णय कर्यो.
गुण–गुणीनी एकता स्वभावथी ज छे, पण कोई निमित्तना कारणे गुणगुणीनी एकता नथी. एकरूप
स्वभावना आश्रये ज गुणनी निर्मळदशा प्रगटे छे, पण निमित्तना के रागना आश्रये निर्मळता प्रगटती नथी,
निमित्तना अने रागना आश्रये तो विकारनी ज उत्पत्ति