गुणो प्रगटशे नहि. ज्ञानादि गुण तो आत्माना छे, ते आत्मा साथे एकरूपे छे माटे आत्मा तरफ ढळीने ए गुणोने
शोध. पुण्य–पापमां शोधीश तो त्यां तारा गुण नहि मळे. बहारनी कोई क्रियामां तारा ज्ञानादि गुणो नथी. पण
ज्ञान अने आत्मानी एकता जाणीने ज्ञान गुणपणे परिणमवुं ते ज धर्म छे.
गुण तो आत्मामां छे पण रागादिमां नथी. माटे तारा स्वभावमां गुण–गुणीनी एकताना लक्षे तारा गुणो प्रगटे छे.
एटले के जो ज्ञान अने आत्माने सर्वथा भिन्न मानो तो चैतन्य स्वरूप आत्मानी हयाति ज न रहे. माटे गुण–
गुणीनी एकता ओळखीने, जो ज्ञानगुणने आत्मामां शोधे अने आत्माने ज्ञानगुणमां शोधे–ए रीते गुण–
गुणीनी एकता तरफ अंतर्मुख थईने झूकाव करे तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागी गुणो प्रगटे.
‘वीतरागी गुणो’ प्रगटे एनो अर्थ एम समजवो के जेवा शुद्ध गुणो छे तेवी ज तेने अनुसरती शुद्ध पर्याय
प्रगटे छे अने रागरहित छे.
जो आत्मामां ज्ञान–आनंद वगेरे गुणो त्रिकाळ न होय तो ज्ञान–आनंद वगर आत्माने जडपणुं ठरे. अने जो ज्ञान
आनंदमां सदाय आत्मा न होय तो आत्मा वगर ते ज्ञानादि गुणो जड थई जाय, अने ते गुणो कोना आश्रये रहे?
पण निर्णय आवी जाय छे. एक आत्मामां अनंत गुणो छे तेनो निर्णय करवानुं सामर्थ्य ज्ञाननी अवस्थामां छे.
अरूपी वस्तुओनो पण निर्णय करवानुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे. जो एक क्षण पण ज्ञानादि अनंत गुणोने आत्माथी जुदा
माने तो त्रणेकाळे आत्माने गुणोथी रहित मान्यो अने अनंत आत्माओ छे ते दरेकने तेमना अनंत गुणोथी जुदा
मान्या तेथी ते मान्यता मिथ्या छे. एक क्षणमां पोताना आत्मानी ऊंधी मान्यता करी तेमां एकना ऊंधा निर्णयमां
अनंतनो ऊंधो निर्णय आवी जाय छे. तेवी ज रीते एक आत्माना निर्णयमां अनंत आत्माओना स्वरूपनो सवळो
निर्णय थई जाय छे.
अथवा तो स्त्रीनो संग छोडी दीधो तेथी, इत्यादि कोईपण बहारना आश्रये आत्माना गुण प्रगटे एम माने तो त्रणे
काळे अंतर आत्माने गुणोथी भिन्न मान्यो छे. तेणे पोताना ऊंधा अभिप्रायथी आत्मानो ऊंधो निर्णय कर्यो,
एकना ऊंधा निर्णयमां अनंतनो ऊंधो निर्णय कर्यो.
निमित्तना अने रागना आश्रये तो विकारनी ज उत्पत्ति