Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १७६ः आत्मधर्मः ४प
छे, स्वभावना आश्रये निर्मळ वीतरागी भावनी उत्पत्ति छे, एवी स्वाश्रित अंतरद्रष्टिथी जेणे गुणगुणीनी
एकतानी प्रतीति करी तेनुं अंतर वीर्य स्वभाव तरफ रोकाणुं. पोताना आत्माने गुणगुणी अभेद स्वरूपे स्वीकार्यो
तेमां अनंत आत्माओने पण तेवा स्वभाववाळा ज स्वीकार्या. अहीं सवळाईथी एकना निर्णयमां अनंतनो सवळो
निर्णय आवी गयो. आ बधुं ज्ञाननुं ज सामर्थ्य छे अने ज्ञान तो आत्मा साथे एकतापणे छे. जो आवी गुणगुणी
एकतानी प्रतीत करीने स्वभाव तरफ ढळे तो राग साथेनी एकता तूटीने वीतरागीपर्याय प्रगटे. सम्यग्दर्शन ए पण
वीतरागी पर्याय छे.
गुणगुणीनी एकता स्वभावथी ज छे, ते कदी जुदा पडता नथी. तीव्र राग करे तेथी कांई गुण अने गुणी
जुदा पडी जता नथी अने कषायनी मंदता करे तेथी कांई गुण–गुणीनी एकता लक्षमां आवती नथी. गुणगुणीनी
एकता तो सदाय एकरूप छे, पण तेनी एकतानुं लक्ष कषायनी मंदताथी थतुं नथी. मारा गुणनो आधार तो द्रव्य
छे–एम स्वाश्रित प्रतीत करीने एकरूप द्रव्यने प्रतीतमां ल्ये तो गुणगुणीना भेदनो विकल्प पण तूटीने गुणगुणीनी
एकतानुं लक्ष थाय छे अने सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे तथा अंशे अकषायभाव प्रगट थाय छे. परंतु
कषायभाव वडे अथवा तो गुण–गुणी
भेदना लक्षे गुण–गुणीनुं एक स्वरूप प्रतीतमां आवतुं नथी. ज्यां सुधी
गुणगुणीनी एकतानी प्रतीत न करे त्यांसुधी पर्यायमां गुण प्रगटे नहि एटले के धर्म थाय नहि.
अहीं कह्युं के–गुणगुणीनी एकतानुं लक्ष अकषायभावथी थई शके छे, पण कषायनी मंदताथी थई शकतुं
नथी. अहीं कोई प्रश्न करे के–अकषायरूप तो भगवान महावीरादि थई गया, छद्मस्थ जीवोने तो कषायभाव होय छे,
तो तेने गुणगुणीनी एकतारूप स्वभावनी प्रतीति केम थाय? तेनो उत्तर–आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ अकषायरूप छे
तेना लक्षे अंशे अकषायभाव थाय छे. शुद्धात्मानी प्रतीति तो संपूर्ण अकषायभावरूप छे. महावीर भगवानने पण
त्रिकाळ अकषायस्वभाव हतो तेमांथी अकषायपणुं प्रगटयुं के बहारथी? जेवो महावीरनो स्वभाव छे तेवो ज मारा
आत्मानो स्वभाव छे. मारा स्वभावनी अंतरक्रियामां कोई पुण्य–पापना भाव के निमित्तनो संयोग बिलकुल
मददगार नथी–एवा भान वगर कषायनी मंदताने व्यवहार पण कहेवाय नहि, ए तो व्यवहाराभास छे. ज्यां
गुणगुणीनी एकतारूप निश्चयनुं लक्ष थयुं छे त्यां व्यवहार होय छे. गुणगुणीनी एकतानुं लक्ष करे तो रागादिरहित
दशा प्रगटे. अने त्यां जे राग होय तेने व्यवहार कहेवाय. पण गुणगुणीनी एकताना लक्ष वगर कषायनी मंदता करे
तेने व्यवहार पण शी रीते कहेवो? ज्यां निश्चय होय त्यां व्यवहार होई शके. निश्चय वगर व्यवहार होय नहि.
भगवान महावीर आजे केवळज्ञानदशा पाम्या, जीवनमुक्त दशा प्रगट करी. आ पहेलां गुणगुणीनी
एकतानुं भान तो हतुं, अने तेमां ज घणी एकाग्रता करीने घणा कषायनो तो अभाव कर्यो हतो. पण हजी अत्यंत
अल्प कषाय बाकी हतो. आजे संपूर्ण स्वरूपएकाग्रता वडे कषायनो सर्वथा नाश करी केवळज्ञान प्रगट कर्युं. तेथी
आजे ‘केवळज्ञान कल्याणक’ नो मंगळ दिवस उजवाय छे. महावीर भगवानने केवळज्ञान प्रगटयुं ते कोई बहारना
आश्रये प्रगटयुं नथी, पण ज्ञान गुण अने आत्मा त्रिकाळ एकरूप हता, तेना ज आश्रये ते गुण केवळज्ञानदशारूपे
परिणम्यो छे. एक क्षण पण पराश्रये गुण माने तेणे त्रणेकाळना आत्माओने गुणथी जुदा मान्या. व्यवहार करतां
करतां निश्चय प्रगटे एम माने तेने पण गुणगुणीनी एकतानी प्रतीति नथी. स्वाश्रय वगर गुणनी निर्मळ पर्याय
प्रगटे नहि; पराश्रये जे रागादिरूप पर्याय प्रगटे ते परमार्थे आत्माना गुणनी पर्याय कहेवाय नहि.
आत्मा अनादि अनंत छे, तेनी पर्यायमां ज्ञान, आनंद, निर्मळता केम प्रगटे तेनी वात छे. स्वाश्रयथी
गुणगुणीनी एकतानुं लक्ष करे तो गुण प्रगटे. गुणगुणीनी एकता कांई नवी करवानी नथी, ए तो त्रिकाळ एकतारूप
छे ज, पण श्रद्धा–ज्ञानवडे ते एकतानुं भान करे तो तेना आश्रये निर्मळ पर्याय प्रगटे. पोते पात्रताथी अंतर
स्पर्शीने एम माने के मारा स्वभावमां विकल्पनो आश्रय नथी, पण गुणगुणी त्रिकाळ अभेदरूप छे, तेना ज आश्रये
पर्यायमां प्रगट थाय छे. एम माननारने एकतानी प्रतीति छे. पण पराश्रये विकल्पथी गुण प्रगटशे एम माने ते
सदाकाळ गुणगुणीने जुदा माने छे, ते शास्त्र वांचीने भले एम कहेतो होय के गुण अने गुणी अभेद छे, परंतु तेने
अंतरथी तेनी एकतानी प्रतीति नथी.
मारा त्रिकाळी गुणनी पर्याय बहारना संयोगोथी प्रगटे एम जेणे मान्युं तेणे आत्माना आश्रय वगर