Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4 of 29

background image
प्रथमश्रावणः२४७३ः १८७ः
९. अज्ञानी पोताना जीवस्वभावने जाणतो नथी तेथी तेने क्षणेक्षणे पर्यायमां जीवहिंसा थईने विकारनी
उत्पत्ति थया करे छे. अने ज्ञानी जीवने विकारथी भिन्न पोताना जीव स्वभावनुं भान छे, तेथी विकार वखते पण
तेओ जीवस्वभावने विकारथी भिन्न टकावी राखे छे, तेथी तेमने क्षणे क्षणे निर्मळदशानी वृद्धि अने विकारनो नाश
थाय छे–ए ज जीवदया छे.
१०. जे जीव पुण्यथी धर्म थाय एवो उपदेश आपे ते जीव विकारी भाव साथे जीवतत्त्वने एकमेक मनावे छे,
पण विकारथी जीवने भिन्न मनावता नथी एटले खरेखर तेओ जीव हिंसाना उपदेशक छे, नहि के जीवदयाना.
११. कोईपण विकारी लागणीथी जीवने धर्म थाय ज नहि, केमके विकारथी जीवनो स्वभाव भिन्न छे–
एम यथार्थ समजवुं तेनुं नाम जीवदया छे. जीव स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता वडे विकारनी उत्पत्ति न थवा
देवी एनुं नाम ‘जीवदया’ छे अने एवी जीवदया ते धर्म छे; पण पर जीवोने बचाववानी शुभ लागणीने
अज्ञानीओ जीवदया कहे छे, वास्तविक रीते ते शुभभावथी जीवदया नथी पण जीवहिंसा ज छे, अने ते
शुभभावथी आत्माने लाभ मानवो अथवा तो पर जीवने हुं बचावी शकुं एवी मिथ्यामान्यता ते तो सौथी
महान जीवहिंसा छे.
१२.–माटे जेओ अनंतकाळथी चाली आवेली महान जीवहिंसा टाळीने साची जीवदया प्रगट करवा मागता
होय तेओए सौथी प्रथम सम्यग्दर्शन वडे पोताना जीवस्वभावने विकारथी भिन्नपणे ओळखवो
जोईए...सम्यग्दर्शनथी ज साची जीवदयानी शरूआत थई शके छे. * * * * *
जिनशासननी प्रभावना
(अष्टप्राभृत गाथा ११ उपर प्रवचनः वैशाख वद–८ वीर सं. २४७२)
आ जगतमां चेतन तेम ज जड वस्तुओ सत् छे, सत् वस्तुने बीजानी मददनी जरूर होय नहि. सत् वस्तु
पोताथी स्वतंत्र छे. सत् वस्तुने बीजा पदार्थोनी जरूर जे माने तेणे स्वतंत्र सत्ने जाण्युं नथी. वस्तुने स्वतंत्र कहेवी
अने वळी तेने बीजा पदार्थोनी मदद छे एम कहेवुं ते प्रत्यक्ष विरुद्ध छे. जे वस्तु सत् होय ते अन्य वस्तुओथी
निरपेक्ष होय, पोताना कार्य माटे तेने पर वस्तुनी जरूर होय नहि. वस्तु पोताना स्वभावथी ज उत्पाद–व्यय–
ध्रुवरूप छे.
“आपणा जीवनमां आपणे बीजा जीवोनुं कंईक भलुं करीए तो आपणुं जीवन कामनुं; भले जीवनमां
आपणुं भलुं न थाय पण आपणाथी जिनशासननी प्रभावना थाय अने समाजनुं कल्याण थाय तथा बीजा जीवो
धर्म पामे–एवी प्रवृत्ति करवी.”–एम अज्ञानी जीव माने छे; तेनी द्रष्टि ज पर उपर छे, अने पर पदार्थोनुं हुं करी
दऊं–एवा महा अहंकारथी ते भरेलो छे; तेथी ते एम माने छे के अमे जिनशासनने टकावी राखवा घणुं करीए
छीए. पण भाई, तें शुं कर्युं? पर जीवोमां तो तें कांई कर्युं नथी, मात्र तारामां तें शुभराग कर्यो, अने परजीवोना
कर्तृत्वनुं अभिमान करीने मिथ्यात्व भावने पोष्यो. शुभराग वडे तें जिनशासननी प्रभावना मानी पण जिनशासन
तो वीतरागतामय छे, वीतरागी जिनशासननी प्रभावना तें राग वडे मानी एटले के वीतरागतामय जिन शासनने
तें रागमय मनावीने ऊलटी तेनी अप्रभावना ज करी छे. रागना एक अंशथी पण स्वने के परने लाभ मनावे तो
ते जीव वीतरागी जिनशासननो विरोधी छे.
वळी जिनशासन तो स्वतंत्रतामां छे के पराधीनतामां? दरेके दरेक वस्तु संपूर्ण स्वतंत्र छे, तेम न मानतां
‘मारे लीधे पर जीवोनुं हित थाय’ एम जेणे मान्युं तेणे पर जीवोने स्वतंत्र न मान्या एटले के जिनशासनने ज न
मान्युं, एटले के वस्तुस्वभावने ज न मान्यो. एक वस्तु बीजी वस्तुने कांई पण करे ए वात जिनशासनने संमत
नथी.
वीतराग जिनशासनने रागमय माने, अने शुभराग वडे शासननी प्रभावना करूं छुं–एम अज्ञानी
माने, पण राग वडे वीतरागी शासन टके ज नहि. जैनशासन तो वीतराग भावथी टके के राग भावथी? अने
जैनशासन तो स्वतंत्रता छे के परतंत्रता? जेणे शुभराग वडे जिनशासन टके एम मान्युं अथवा तो हुं पर
जीवोने धर्म समजावी दउं एम मान्युं तेणे जिनशासननी अप्रभावना करी छे एटले के पोताना
आत्मस्वभावनी विराधना करी छे. पण, परनुं हुं कांई करी शकुं नहि अने रागथी लाभ थाय नहि एम परथी
जुदा अने रागरहित पोताना स्वभावना भानपूर्वक जेटले अंशे राग टाळीने जीवे वीतरागता प्रगट करी तेटले
अंशे जिनशासननी प्रभावना छे.
*