Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १८६ः आत्मधर्मः खास अंक
वर्ष चोथुंप्रथम श्रावणआत्मधर्म
खास अंकर४७३
जीव दयानुं स्वरूप
१. जीव शुं अने जीवनी दया एटले शुं–ए प्रथम समजवुं जोईए. जीव तो चैतन्य स्वरूप छे, शरीरादि
अजीव छे तेनाथी जीव जुदो छे. अने चैतन्य स्वरूप जीवने विकारी भावोथी बचाववो तेनुं नाम जीव दया छे. परंतु
जीव अने शरीर जुदा पडे ते जीव हिंसा तथा जीव अने शरीरनो संयोग रहे ते जीव दया–एवी व्याख्या साची नथी.
विकारथी भिन्न शुद्ध जीव स्वभावने जे न जाणे ते जीव पोताने विकारथी कई रीते बचावी शके? एटले पोताना
शुद्ध स्वभावने जाण्या वगर जीव दया पाळी शकाय नहि.
२. सम्यग्द्रष्टिओ ज साची जीव दया पाळी शके, मिथ्याद्रष्टि जीव साची जीव दया पाळी शके नहि. दया तो
जीवनी पाळवी छे, तेथी जेओ जीवने न ओळखता होय तेओ जीवनी दया क्यांथी पाळी शके?
३. जीवने शरीरनो संयोग चालु रहे तो जीव दया थई कहेवाय एम जे माने छे ते जीव स्वभावने जाणतो
नथी, एटले ते जीवना रक्षणने जीवदया मानतो नथी पण शरीरना रक्षणने जीवदया माने छे.
४. वळी जीवनी दया पाळवी छे एटले के विकारी भावोथी जीवने बचाववो छे; तो पछी जे
शुभाशुभभावने पोतानुं कर्तव्य माने ते जीव ते शुभाशुभभावोथी जीवने केम बचावी शके? ज्यां सुधी शुभाशुभ
विकारीभावोने पोताना माने त्यांसुधी जीवनी दया न पाळी शके पण विकारनी (पुण्य–पापनी) दया पाळे एटले के
विकारने पोतानो मानीने विकारनुं (पुण्य–पापनुं) रक्षण करे अने जीवना चैतन्य प्राणनी हिंसा करे. एटले जेने
जीव स्वभाव अने विकार वच्चेनुं भेदज्ञान प्रगटयुं न होय ते जीव कदी पण जीवहिंसाथी बची शके नहि अने
जीवदया पाळी शके नहि.
प. जीवदयामां पहेलां ‘जीव’ शब्द छे, जीव पदार्थने जाणे तो तेनी दया पाळी शके. शरीर तो जड छे, तेनी
कांई दया के हिंसा होय नहि. ‘एकेन्द्रिय जीव’ एम कह्युं तेमां ‘एकेन्द्रिय’ ते तो खरेखर शरीर छे–जड छे, अने
जीव तो एकेन्द्रिय शरीरथी जुदो चैतन्यस्वरूपी छे. एम प्रथम जडने अने जीवने जुदा जाणवा जोईए.
६. हवे जगतना जेटला जीव द्रव्यो छे ते बधाय पोतपोताना गुणपर्याय सहित छे, शरीरथी तो तेओ
त्रिकाळ भिन्न ज छे अने जीव पणे ज तेओ त्रिकाळ अस्तिरूप छे, तेना जीवपणानो कदी नाश थतो नथी; तेथी हुं ते
पर जीवोने बचावी शकुं नहि के मारी शकुं नहि. शरीरना वियोगथी जीवनो नाश तो थतो नथी तो पछी बीजो जीव
तेने बचावे अथवा तो मारे–ए वात ज क्यांथी बने? हवे ते जीवनी पर्याय तेना पोताथी ज थाय छे. तेनी
पर्यायमां ते जेटलो विकार करे तेटली तेनी हिंसा छे, अने विकारथी पोताने बचावे ते तेनी जीवदया छे. जो आम
जीवने ओळखे अने जीवदयानुं स्वरूप समजे तो–हुं पर जीवोने मारुं के बचावुं एवी मिथ्या–मान्यता टळी जाय.
अने पोते पोताना जीवस्वभावने परथी अने विकारथी भिन्नपणे श्रद्धामां टकावी राखे–ए ज साची जीवदया छे.
श्रद्धा अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिओने परिपूर्ण जीवदया छे, केमके तेओ विकारना एक अंशने पण जीवनो मानता नथी.
अने चारित्र अपेक्षाए जेटलो विकार छे तेटली हिंसा छे.
७. जेणे जीव तत्त्वने विकाररूपे कल्पी लीधुं छे तेणे विकारथी भिन्न जीव तत्त्वनो नाश कर्यो छे एटले के
आखा जीव तत्त्वनी हिंसा करी छे. भले ते जीवना निमित्ते बहारमां कोई जीवोनी हिंसा न थती होय अने तेने
अशुभभाव न वर्तता होय तोपण, ज्ञानीओ कहे छे के ते जीव हिंसक छे. जेम तेणे पोताना जीव तत्त्वने विकारथी
लाभ मान्यो एवी ज रीते तेणे बधाय जीवोने विकारथी लाभ थाय एम मान्युं एटले के बधाय जीवोने विकारी
मान्या पण शुद्ध चैतन्यरूपी मान्या नहि, तेनी ए ऊंधी मान्यतामां तेणे अनंत जीवोनी हिंसा करी छे.
८. ‘जीवदया’ मां जीवने टकावी राखवो छे के विकारने? जीवने जीव पणे टकावी राखवो अने विकारपणे
न थवा देवो एनुं नाम जीवदया छे, अने जीवने जीवपणे न ओळखतां विकारी मानवो अने शरीरवाळो मानवो तेनुं
ज नाम जीव हिंसा छे. जीव कोने कहेवाय ते तने खबर छे? जीव तो पोताना ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत
गुणोनो पिंड छे, दरेक जीव पोताना गुणथी पूरो छे. ए पर जीवो पोतपोताना स्वभावने ओळखीने पर्यायमां
शुद्धता प्रगट करे तो तेमनी दया थाय, पण मारुं तेमां कांई चाले नहि.–आम जाणीने ज्ञानीओ पोताना आत्माने
विकारथी बचावे छे–ए ज जीवदया छे.