जीव अने शरीर जुदा पडे ते जीव हिंसा तथा जीव अने शरीरनो संयोग रहे ते जीव दया–एवी व्याख्या साची नथी.
विकारथी भिन्न शुद्ध जीव स्वभावने जे न जाणे ते जीव पोताने विकारथी कई रीते बचावी शके? एटले पोताना
शुद्ध स्वभावने जाण्या वगर जीव दया पाळी शकाय नहि.
विकारीभावोने पोताना माने त्यांसुधी जीवनी दया न पाळी शके पण विकारनी (पुण्य–पापनी) दया पाळे एटले के
विकारने पोतानो मानीने विकारनुं (पुण्य–पापनुं) रक्षण करे अने जीवना चैतन्य प्राणनी हिंसा करे. एटले जेने
जीव स्वभाव अने विकार वच्चेनुं भेदज्ञान प्रगटयुं न होय ते जीव कदी पण जीवहिंसाथी बची शके नहि अने
जीवदया पाळी शके नहि.
जीव तो एकेन्द्रिय शरीरथी जुदो चैतन्यस्वरूपी छे. एम प्रथम जडने अने जीवने जुदा जाणवा जोईए.
पर जीवोने बचावी शकुं नहि के मारी शकुं नहि. शरीरना वियोगथी जीवनो नाश तो थतो नथी तो पछी बीजो जीव
तेने बचावे अथवा तो मारे–ए वात ज क्यांथी बने? हवे ते जीवनी पर्याय तेना पोताथी ज थाय छे. तेनी
पर्यायमां ते जेटलो विकार करे तेटली तेनी हिंसा छे, अने विकारथी पोताने बचावे ते तेनी जीवदया छे. जो आम
जीवने ओळखे अने जीवदयानुं स्वरूप समजे तो–हुं पर जीवोने मारुं के बचावुं एवी मिथ्या–मान्यता टळी जाय.
अने पोते पोताना जीवस्वभावने परथी अने विकारथी भिन्नपणे श्रद्धामां टकावी राखे–ए ज साची जीवदया छे.
श्रद्धा अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिओने परिपूर्ण जीवदया छे, केमके तेओ विकारना एक अंशने पण जीवनो मानता नथी.
अने चारित्र अपेक्षाए जेटलो विकार छे तेटली हिंसा छे.
अशुभभाव न वर्तता होय तोपण, ज्ञानीओ कहे छे के ते जीव हिंसक छे. जेम तेणे पोताना जीव तत्त्वने विकारथी
लाभ मान्यो एवी ज रीते तेणे बधाय जीवोने विकारथी लाभ थाय एम मान्युं एटले के बधाय जीवोने विकारी
मान्या पण शुद्ध चैतन्यरूपी मान्या नहि, तेनी ए ऊंधी मान्यतामां तेणे अनंत जीवोनी हिंसा करी छे.
ज नाम जीव हिंसा छे. जीव कोने कहेवाय ते तने खबर छे? जीव तो पोताना ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत
गुणोनो पिंड छे, दरेक जीव पोताना गुणथी पूरो छे. ए पर जीवो पोतपोताना स्वभावने ओळखीने पर्यायमां
शुद्धता प्रगट करे तो तेमनी दया थाय, पण मारुं तेमां कांई चाले नहि.–आम जाणीने ज्ञानीओ पोताना आत्माने
विकारथी बचावे छे–ए ज जीवदया छे.