Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः १८९ः
कारनी पहेली बे गाथाओनुं गुजराती भाषांतर वांची
संभळाव्युं हतुं. जे घणुं ज सुंदर अने चारित्रदशानी
भावनाथी भरपूर हतुं. वनमां चारित्र अधिकारनी ए
बे गाथाओ वडे खरेखर चारित्रदशानां ज महा मंगळ
रोपाणां हतां...ए वखते बधा मुमुक्षुओ स्तब्ध थईने
चारित्र भावनामां झुलता हता..ते वखते वंचायेली बे
गाथाओ नीचे मुजब छे–
चरणानुयोगसूचक चूलिका
हवे बीजाओने चरणानुयोग सूचवनारी चूलिका छे.
(तेमां प्रथम श्री अमृतचंद्राचार्यदेव श्लोक द्वारा
हवेनी गाथानी उत्थानिका करे छेः)
(इन्द्रवज्रा छंद)
द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ।
बुध्वेति कर्माविरताः परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरंतु।।१३।।
–इति चरणाचरणे परान् प्रयोजयति
अर्थः– द्रव्यनी सिद्धिमां चरणनी सिद्धि छे अने
चरणनी सिद्धिमां द्रव्यनी सिद्धि छे–एम जाणीने, कर्मथी
(शुभाशुभ भावोथी) नहि विरमेला बीजाओ पण
द्रव्यथी अविरुद्ध चरण (चारित्र) आचरो.
–आम (श्रीमद् भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव हवेनी गाथा
द्वारा) बीजाओने चरण आचरवामां जोडे छे.
(हवे गाथा शरू कर्या पहेलां तेनी साथे संधीने अर्थे
श्री अमृतचंद्राचार्य देवे पंच परमेष्ठीने नमस्कार करवा
माटे ज्ञान–तत्त्व–प्रज्ञापन अधिकारनी पहेली त्रण
गाथाओ लखी छे.)
सुर असुर–नरपतिवंद्यने, प्रविनष्टघातिकर्मने,
प्रणमन करुं हुं धर्मकर्ता तीर्थ श्री महावीरने; १.
वळी शेष तीर्थंकर अने सौ सिद्ध शुद्धास्तित्वने,
मुनि–ज्ञान–ग–चारित्र–तप–वीर्याचरणसंयुक्तने. २.
ते सर्वने साथे तथा प्रत्येकने प्रत्येकने,
वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे वर्तता अर्हंतने. ३.
(हवे आ अधिकारनी गाथा शरू करवामां आवे छे.)
ए रीत प्रणमी सिद्ध, जिनवरवृषभ, मुनिने फरी फरी
श्रामण्य अंगीकृत करो, अभिलाष जो दुःखमुक्तिनी।२०१।।
अर्थः– जो दुःखथी परिमुक्त थवानी इच्छा होय तो,
पूर्वोक्त रीते (ज्ञानतत्त्व–पज्ञापननी पहेली त्रण
गाथाओ प्रमाणे) फरी फरीने सिद्धोने, जिनवर वृषभोने
(अर्हंतोने) तथा श्रमणोने प्रणमीने (जीव) श्रामण्यने
अंगीकार करो.
टीकाः– दुःखथी मुक्त थवाना अर्थी एवा मारा
आत्माए जे रीते ‘किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो
गणहराणं। अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेदि सव्वेसिं।।
तेसिं विशुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज।
उवसंपयामि सम्मंजत्तो णिव्वाणसंपत्ती।।’
एम अर्हंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो तथा
साधुओने प्रणाम–वंदनात्मक नमस्कारपूर्वक विशुद्धदर्शन
ज्ञानप्रधान साम्य नामना श्रामण्यने के जेमां आ ग्रंथनी
अंदर आवी गयेला (ज्ञान–तत्त्व–प्रज्ञापन अने ज्ञेय
तत्त्व–प्रज्ञापन नामना) बे अधिकारनी रचना वडे
सुस्थितपणुं (सारी रीते स्थिरपणुं) प्राप्त थयुं छे तेने–
अंगीकार कर्युं, ते रीते बीजानो आत्मा पण, जो ते
दुःखथी मुक्त थवानो अर्थी होय तो, तेने अंगीकार करो.
तेने (श्रामण्यने) अंगीकार करवानो जे यथानुभूत (–
जेवो अमे अनुभव्यो छे तेवो) मार्ग तेना प्रणेता अमे
आ उभा.
।। २०१।।
हवे श्रमण थवा इच्छनार पहेलां शुं शुं करे छे ते
उपदेशे छे.
निज बंधु वर्ग–विदाय लई, स्त्री–पुत्र–वडीलोथी छूटी,
ग–ज्ञान–तप–चारित्र वीर्याचार अंगीकृत करी।।२०२।।
अर्थः– बधुं वर्गनी विदाय लईने, वडीलो स्त्री अने
पुत्रथी मुक्त करवामां आव्यो थको, ज्ञानाचार,
दर्शानाचार चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचारने
अंगीकार करीने...
टीकाः– जे श्रमण थवा इच्छे छे, ते पहेलां ज बंधु
अने
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– एक प्रस्ताव –
– गुजराती भाषांतर ८प मियाना स्ट्रीट, मैनपुरी,
(यु. पी.)
ता. १४ जुन १९४७
“श्री जैन साहित्य सभा–मैनपुरी एवो ठराव करे छे
के सुवर्णपुरी–सोनगढमां एक वायु प्रवचन स्थान
(ब्रोादचासतनिग स्तातिोन) स्थापित करवामां आवे,
जेना द्वारा वर्तमान समयना उत्कृष्ट जैन तत्त्ववेत्ता श्री
कानजी स्वामीनां परमोपकारी आध्यात्मिक प्रवचन
आखा जगतने सहेलाईथी मळी शके अने जेथी
जगतना मुमुक्षुओनुं कल्याण थाय.”
(सर्व मते पसार)
महताबचंद्र जैन (मंत्री)
श्री जैन साहित्य सभा, मैनपुरी
ता. २३–६–४७ना रोज उपर्युक्त प्रस्ताव श्री जैन
स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट उपर आव्यो हतो, जे मुमुक्षुओनी
जाण माटे अहीं प्रसिद्ध करवामां आव्यो छे.
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