Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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१९०ः आत्मधर्मः खास अंक
पुत्रथी पोताने छोडावे छे, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, तथा वीर्याचारने अंगीकार करे छे. ते आ
प्रमाणेः–
आ रीते बंधुवर्गनी विदाय ले छे; अहो आ पुरुषना शरीरना बंधुवर्गमां वर्तता आत्माओ! आ पुरुषनो
आत्मा जरा पण तमारो नथी. एम निश्चयथी तमे जाणो. तेथी हुं तमारी विदाय लउं छुं. जेने ज्ञान ज्योति प्रगट
थई छे एवो आ आत्मा आजे आत्मारूपी जे पोतानो अनादि बंधु वर्ग तेनी पासे जाय छे.
अहो आ पुरुषना शरीरना जनकना आत्मा! अहो आ पुरुषना शरीरनी जननीना आत्मा! आ पुरुषनो
आत्मा तमाराथी जनित नथी एम निश्चयथी तमे जाणो. तेथी आ आत्माने तमे छोडो. जेने ज्ञान ज्योति प्रगट थई
छे एवो आ आत्मा आजे आत्मारूपी जे पोतानो अनादि जनक तेनी पासे जाय छे. अहो आ पुरुषना शरीरनी
रमणीना आत्मा! आ पुरुषना आत्माने तुं रमाडतो नथी एम निश्चयथी तुं जाण. तेथी आ आत्माने तुं छोड. जेने
ज्ञानज्योति प्रगट थई छे एवो आ आत्मा आजे स्वानुभूतिरूपी जे पोतानी अनादि रमणी तेनी पासे जाय छे.
अहो आ पुरुषना शरीरना पुत्रना आत्मा! आ पुरुषना आत्मानो तुं जन्य नथी एम निश्चयथी तुं जाण. तेथी आ
आत्माने तुं छोड. जेने ज्ञानज्योति प्रगट थई छे एवो आ आत्मा आजे आत्मारूपी जे पोतानो अनादि जन्य तेनी
पासे जाय छे. आ रीते वडीलो, स्त्री अने पुत्रथी पोतानो आत्मा छोडावे छे.
(अहीं एम समजवुं के, जे कोई जीव मुनि थवा इच्छे छे, ते कुटुंबथी सर्व प्रकारे विरक्त ज होय छे तेथी
कुटुंबनी संमतिथी ज मुनि थवानो नियम नथी. एम कुटुंबना भरोंसे रहेवाथी तो, जो कुटुंब कोई रीते संमति न ज
आपे तो मुनि ज न थई शकाय. आम कुटुंबने राजी करीने ज मुनिपणुं धारण करवानो नियम नहि होवा छतां,
केटलाक जीवोने मुनि थतां पहेलां वैराग्यना कारणे कुटुंबने समजाववानी भावनाथी पूर्वोक्त प्रकारना वचनो नीकळे
छे. एवां वैराग्यनां वचनो सांभळी कुटुंबमां कोई अल्प संसारी जीव होय तो ते पण वैराग्यने पामे छे.)
(हवे नीचे प्रमाणे पंचाचारने अंगीकार करे छेः)
(जेवी रीते बंधुवर्गनी विदाय लीधी, वडीलो, स्त्री अने पुत्रथी पोताने छोडाव्यो) तेवी रीते–अहो काळ,
विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन अने तदुभयसंपन्न ज्ञानाचार! शुद्ध आत्मानो तुं नथी एम
निश्चयथी हुं जाणुं छुं, तोपण त्यां सुधी तने अंगीकार करुं छुं के ज्यां सुधीमां तारा प्रसादथी शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं.
अहो निःशंकिततत्त्व, निःकांक्षित्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढद्रष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण वात्सल्य अने प्रभावना
स्वरूप दर्शनाचार! शुद्ध आत्मानो तुं नथी एम निश्चयथी हुं जाणुं छुं, तोपण त्यां सुधी तने अंगीकार करुं छुं के ज्यां
सुधीमां तारा प्रसादथी शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं. अहो मोक्षमार्गमां प्रवृत्तिना कारणभूत, पंचमहाव्रत सहित काय–
वचन–मन–गुप्ति अने इर्या–भाषा–एषणा–आदान निक्षेपण– प्रतिष्ठा पन समितिस्वरूप चारित्राचार! शुद्ध
आत्मानो तुं नथी एम निश्चयथी हुं जाणुं छुं, तोपण त्यां सुधी तने अंगीकार करूं छुं के ज्यांसुधीमां तारा प्रसादथी शुद्ध
आत्माने उपलब्ध करुं. अहो अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायकलेश,
प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान अने व्युत्सर्गस्वरूप तपाचार! शुद्ध आत्मानो तुं नथी एम निश्चयथी हुं
जाणुं छुं तोपण त्यां सुधी तने अंगीकार करूं छुं के ज्यां सुधीमां तारा प्रसादथी शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं. अहो
समस्त इतर आचारमां प्रवर्तावनारी स्वशक्तिना अगोपनस्वरूप वीर्याचार! शुद्ध आत्मानो तुं नथी एम निश्चयथी
हुं जाणुं छुं, तोपण त्यां सुधी तने अंगीकार करूं छुं के ज्यां सुधीमां तारा प्रसादथी शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं.–आ रीते
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचारने अंगीकार करे छे.
(सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपने जाणे छे–अनुभवे छे, अन्य समस्त व्यवहारभावोथी पोताने भिन्न
जाणे छे. ज्यारथी तेने स्व–परना विवेकरूप भेदविज्ञान प्रगट थयुं हतुं त्यारथी ज ते सकल विभावभावोनो त्याग
करी चूकयो छे अने त्यारथी ज एणे टंकोत्कीर्ण निजभाव अंगीकार कर्यो छे. तेथी तेने नथी कांई त्यागवानुं रह्युं के
नथी कांई ग्रहवानुं–अंगीकार करवानुं रह्युं. स्वभाव–द्रष्टिनी अपेक्षाए आम होवा छतां, पर्यायमां ते पूर्वबद्ध
कर्मोना उदयना निमित्ते अनेक प्रकारना विभावभावो रूपे परिणमे छे. ए विभाव परणति नहि छूटती देखीने ते
आकुळ व्याकुळ पण थतो नथी तेम ज समस्त