Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः १९१ः
विभावपरिणतिने टाळवानो पुरुषार्थ कर्या विना पण
रहेतो नथी. सकल विभाव परिणति रहित
स्वभावद्रष्टिना जोररूप पुरुषार्थथी गुणस्थानोनी
परिपाटीना सामान्य क्रम अनुसार तेने पहेलां अशुभ
परिणतिनी हानि थाय छे अने पछी धीमे धीमे शुभ
परिणति पण छूटती जाय छे. आम होवाथी ते शुभ
रागना उदयनी भूमिकामां गृहवासनो अने कुटुंबनो
त्यागी थई व्यवहाररत्नत्रयरूप पंचाचारोने अंगीकार
करे छे. जो के ज्ञान भावथी ते समस्त शुभाशुभ
क्रियाओनो त्यागी छे तोपण पर्यायमां शुभ राग नहि
छूटतो होवाथी ते पूर्वोक्त रीते पंचाचारने ग्रहण करे छे.
।। २०२।।
अपूर्व अवसरनी भावना
लगभग ८–२० मिनिटे ते वांचन पूरुं थई गयुं हतुं.
त्यारबाद “अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे” ए
काव्य हिंमतलालभाई गवडावता हता अने मुमुक्षुओ
झीलता हता. तेमणे लगभग ८ गाथा गवडाव्या बाद
पूज्य गुरुदेवश्रीए गवडाववानुं शरू कर्युं हतुं. अपूर्व
अवसरनी भावना वखतनुं ए द्रश्य घणुं सुंदर–वैराग्य
प्रेरक हतुं. तेमां ज्यारे ‘एकाकी विचरतो’ ए गाथा
आवी त्यारे तो एम थतुं हतुं के–जाणे पर द्रव्यो अने
परभावोना संगथी छूटो पडीने आत्मा पोताना एकाकी
स्वरूपमां ज विचरवा मांडयो होय! अन्य ए एकाकी
दशा. जेम वनविहारी मुनिओ एकबीजाथी निरपेक्ष होय
छे तेम ते वखते सर्वे मुमुक्षुओ पण एक बीजाथी
निरपेक्ष थईने पोतपोतानी भावनामां मस्त हतां.
जंगल वसाव्युं रे जोगीए
९–० वागे अपूर्वअवसरनी भावना पूरी थई हती.
त्यारबाद पूज्य बेनश्रीबेने नीचेनुं प्रसंगोचित्त स्तवन
गवडाव्युं हतुं.
(भरथरी राग)
जंगल वसाव्युं रे जोगीए, तजी तनडानी आशजी,
वात न गमे आ विनी आठे पहोर उदासजी. जं. १
सेज पलंग पर पोढतां, मंदिर झरूखा मांयजी;
तेने नहि तृण साथरो, रहेता तरूतल छांयजी–जं. २
साल दुशाला ओढतां, झीणा जरकशी जामजी;
तेणे रे न राख्युं तृण वस्त्रनुं, सहे शीर शीत
घामजी. जं. ३
हाजी कहेतां हजार उठतां, चालतां लश्कर लावजी;
ते नर चाल्या रे एकला, नहि पेंजार पावजी–जं. ४
भलो रे त्याग राजा रामनो, त्यागी अनेक नारजी;
मंदिर–झरूखा मेली करी, आसन कीधलां दूरजी–जं. प
धन्य धन्य श्री सुकुमार मुनि, ग्रह्युं स्वरूप निर्ग्रंथजी;
राज साज सुख परिहरी वेगे चालिया वनजी–जं. ६
ए वैराग्य वंतने जाउं वारणे, बीजां गया रे अनेकजी;
धन्य रे जनो ए अवनि विषे तेने करुं हुं नमनजी–जं. ७
वनयात्रामांथी पाछा फरतां
लगभग ९–२० मिनिटे ए स्तवन पूरुं थया बाद श्री
सीमंधर भगवान अने वनवासी संतोना जयजयकार
गजावतां समस्त मुमुक्षुमंडळ त्यांथी पाछुं फर्युं हतुं. जाणे
वनमां श्री सीमंधर भगवाननो दीक्षा कल्याणक ऊजवीने
ज पाछां आवतां होय,–एवी रीते पाछा फरती वखते
रस्तामां सीमंधर भगवानना दीक्षाकल्याणकनुं स्तवन
गवातुं हतुं, तेनी मुख्य बे कडीओ नीचे मुजब छे.
(सुंदर सुवर्णपुरीमां...ए राग)
वंदो वंदो परम विरागी त्यागी जिनने रे...
थाये जिन दिगंबर मुद्राधारी देव–
श्री सीमंधर प्रभुजी तपोवनमां संचर्या रे...
जगत प्रकाशक शांतिधारी अहो तुज दिव्यता रे..वंदो
साध्युं ध्यान ध्येय ने ध्याता एकाकार,
एवा वनविहारी प्रभुजी वीतरागी थया रे...वंदो
लगभग ९–३० मिनिटे स्वाध्याय मंदिर पहोंच्या
बाद त्यां थोडी वार धून लेवाणी हती.
ए रीते महान वन यात्रा थई अने जंगलमां मंगळ थयुं.
सुवर्णपुरीनुं सहेसावन
सांजे भक्ति वखते पण नीचेना पदो द्वारा ए
प्रसंगनो उत्साह व्यक्त थतो हतो–
तीर्थधाम श्री सुवर्णपुरीमां, सहेसावन बहु सोहे छे...
सद्गुरुदेवना चरण कमळथी सहेसावन बहु सोहे रे...
सहेसावनमां भक्त वृंदोमां सद्गुरुदेव बहु सोहे रे...
सहेसावनमां सद्गुरुदेवने चारित्र भावना उल्लसी रे...
सहेसावनमां अपूर्व भक्ति सद्गुरुदेवनी सुणी रे...
पू. गुरुदेवश्री साथेनी ए वनयात्रा वखते
गीरनारनी यात्राना संस्मरणो ताजां थयां हतां, ए
वनयात्रा आत्मार्थीओना हृदयमां चिरंजीव बनी रहेशे.
धन्य संतो तमारूं वनविहारी जीवन! अने
धन्य ए जीवननी भावना.