।। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।।
वर्ष चोथुंद्वितीय श्रावण
अंक दस
संपादक
रामजी माणेकचंद दोशी
वकीलर४७३
जीव अने कर्म एकबीजाने कांई नुकशान करे नहि.
श्री अमितगति आचार्यकृत योगसार (अर्थात् अध्यात्मतरंगिणी) ना नवमा अधिकारनी
४९मी गाथामां (पा. १८६) कह्युं छे के–
न कर्म हंति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान्।
वध्य घातक भावोऽस्ति नान्योन्यं जीव कर्मणोः।।४९।।
अर्थः–न तो कर्म जीवना गुणोने नष्ट करे छे, के न तो जीव कर्मना गुणोने नष्ट करे छे;
तेथी जीव अने कर्मनो एकबीजामां वध्य–घातक संबंध नथी.
भावार्थः– ‘वध्याघातक भाव’ नामना विरोधमां वध्यनो अर्थ मरनार अने घातकनो
अर्थ मारनार थाय छे; आ विरोध सर्प अने नोळीयामां, पाणी अने अग्निमां–वगेरेमां देखवामां
आवे छे अर्थात् नोळीओ सर्पने मारी नाखे छे तेथी सर्प वध्य छे अने नोळीओ घातक छे एम
कहेवाय छे तथा पाणी अग्निने बूझावी दे छे तेथी अग्नि वध्य छे अने पाणी घातक छे. पण अहीं
जीव अने कर्ममां तेवा प्रकारनो विरोध जोवामां आवतो नथी, केम के जो कर्म जीवना गुणोने नष्ट
करतुं होत अथवा तो जीव कर्मना गुणोने नष्ट करतो होत तो तो जीव अने कर्ममां वध्यघातकभाव
नामनो विरोध होत, परंतु एवुं तो छे नहि. तेथी जीव अने कर्ममां वध्य घातक भाव नामनो
विरोध नथी. एटले के जीवना गुणोने कर्म हणी शकतुं नथी अने कर्मने जीव हणी शकतो नथी, बंने
स्वतंत्र छे.
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वार्षिक लवाजम४६छूटक अंक
अढी रूपियाशाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्रचार आना
* आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया काठियावाड *