Atmadharma magazine - Ank 047
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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।। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।।
वर्ष चोथुंभाद्रपद
अंक अगियार
संपादक
रामजी माणेकचंद दोशी
वकीलर४७३
केवुं जीवन गाळवुं?
हे जीव, तें आत्माने भूलीने देहद्रष्टिथी तो अनंत जीवन वीताव्या
अने एनी पाछळ पण तारुं भवभ्रमणनुं दुःख तो उभुं ज रह्युं; पण हवे
सत्पुरुषोनी आज्ञामां आत्मद्रष्टिथी एक जीवन तो एवुं गाळ के जेनी
पाछळ भव ज धारण करवो न पडे.
(राजकोट ता. २४–११–४४ चर्चामांथी)
मुमुक्षुनी आत्मजागृति
मुमुक्षु जीवोने परम शांत शुद्ध आत्मस्वरूपनी ज रुचि होय छे, पण विकारनी रुचि होती नथी;
तेथी तेओने स्वरूपनी जागृति सदाय एवी वर्त्या करे छे के स्वरूपने भूलीने कोई कार्यमां एकाकार थई
जता नथी–तेमां तन्मय बुद्धि करता नथी. अंतरमां आत्मा करतां शेनीये किंमत (–महिमा) कदी वधती
नथी. कषाय थाय खरो, पण कोई कार्यमां कषाय तरफनो वेग न आववो जोईए. मुमुक्षुओने पर्याय
तरफनो अर्थात् विकार तरफनो वेग एटलो बधो तो न ज होय के जेथी ज्ञानस्वरूपनी रुचि ज ढंकाई
जाय. ज्ञान अने रागनी भिन्नता अनुभववा माटेनो अभ्यास तेमने सदा जागृत होय छे. मुमुक्षुने
परिणाममां आकुळता तो थाय परंतु केवा प्रसंगे पोताना परिणाममां केटली आकुळता थाय छे ते जोवा
माटे ज्ञानने जाग्रत राखे छे अने ते आकुळता माटे खेद करे छे. आ रीते, ज्ञान अने आकुळता वच्चेना
भेदज्ञानना वारंवार अभ्यास वडे अल्पकाळमां ते जरूर परमशांत आत्मानुभवने पामे छे. आवुं
मुमुक्षुदशानुं स्वरूप छे. (–चर्चाना आधारे)
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वार्षिक लवाजम४७छूटक अंक
त्रण रूपियाशाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्रचार आना
* आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया काठियावाड *