जैनतत्त्वनुं तात्पर्य छे. अने तेम करवाथी ज धर्मनी शरूआत, साधकदशा अने पूर्णता थाय छे, ते ज निश्चयनय अने
व्यवहारनी अविरोध संधि छे...आम होवा छतां हालना जैनसमाजमां नयाधिराज निश्चयनय पक्षघातना तीव्र
रोगथी घेराई गयो छे; अने घणाओ ते रोगनुं स्वरूप नहि जाणता होवाथी ते रोगनुं निवारण करवाने बदले उलटा
पोषण आपीने तेनी वृद्धि करी रह्या छे; तेमज जैन संप्रदायोना नामे प्रसिद्ध थतां मोटा भागनां छापांओ अने
वर्तमानपत्रोनो सूर पण लौकिक कथन अने संसार वधारनारा प्रचार तरफ बळपूर्वक चाली रह्यो देखाय छे...ए
रीते, जैनशासननी वर्तमानदशा अंधाधुंधी भरेली अस्तव्यस्त अने ऊंधी थई रही छे. समाज साचा तत्त्वज्ञानथी
अने तेना यथार्थ अभ्यासथी लगभग वंचित छे. धर्मना साचा उपदेशकोनी घणी मोटी अछत जोवामां आवे छे.
लोकोने पण धर्मना नामे जे उपदेशक जे कंई कहे तेनी परीक्षा कर्या वगर तेने साचुं मानी लेवानी कुटेव पडी गई छे.
तेमज कूळधर्मना नामे प्रचलित पुस्तको के लेखोने पण परीक्षा कर्या वगर सत्य मानी लेवानी कुटेव पडी गई छे..
पण ए कोई उपाय आत्मार्थनो नथी...नयाधिराज निश्चयनयने लागु पडेलो रोग तेनाथी मटवानो नथी, अने ए
रोग मटया वगर आत्मकल्याण थवानुं नथी. माटे–
करो, तूलनात्मक शक्तिने केळवो, तेनो विकास करो, आंधळी श्रद्धाए मानवानी कुटेव छोडो, अने सत्य–असत्यनो
बराबर निर्णय करीने सत्यतत्त्वज्ञानने पामो...के जेथी–
परम कल्याणकारी साचा जैनतत्त्वज्ञाननी प्रभावना करवानो तेमज निज आत्मकल्याण करवानो आ प्राप्त थयेलो
महान सुअवसर व्यर्थ गुमावी बेसशे...माटे हे वीरना संतानो!