Atmadharma magazine - Ank 047
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः२४७३ः २३पः
स्वभावनो अनुभव करवानी रीत
वीर संवत २४७३ः प्र. श्रावण वद ८ श्रीसमयसारजी कळश १०९
उपर पू. सद्गुरुदेवश्रीना व्याख्याननो टूंक सार
सिद्ध भगवान ज्ञानथी बधुं मात्र जाणे ज छे. ज्ञानमां नथी तेमने विकल्प, नथी राग–द्वेष, नथी कर्तृत्वनी
मान्यता. सिद्धनी जेम बधा ज आत्मानो स्वभाव ज्ञातापणे मात्र जाणवानो छे–आम जे ओळखे छे ते जीव
पोताना ज्ञानस्वभावमां ढळीने विकल्पादि सर्वनो निषेध करे छे. तेने ज्ञानस्वभावमां एकताबुद्धि प्रगटी छे, ने
विकल्पमां एकताबुद्धि तूटी गई छे; हवे जे विकल्पो आवे ते सर्वनो निषेध करतो करतो आगळ वधे छे. साधक जीव
एम जाण छे के सिद्धनो अने मारो स्वभाव सरखो ज छे, तो पछी सिद्धमां विकल्पादि नथी ते मारामां पण नथी,
तेथी हुं अत्यारे ज मारा स्वभावना जोरे तेनो निषेध करुं छुं. मारा ज्ञानमां बधाय रागादिनो निषेध ज छे. जेम
सिद्धभगवान एकला चैतन्य छे तेम हुं पण एकला चैतन्यने ज अंगीकार करुं छुं.
गमे त्यारे पण स्वसन्मुख थईने सर्व पुण्य–पाप व्यवहारनो निषेध करवो ए ज मोक्षमार्ग छे, तो पछी
हमणां ज तेनो निषेध करवो योग्य छे; केमके तेना निषेधरूप स्वभाव हमणां ज पुरो छे. वर्तमानमां ज स्वभावनी
प्रतीति करतां पुण्य–पापादि व्यवहारनो निषेध स्वयं थई जाय छे. वर्तमानमां तो पुण्य–पापनो निषेध नथी करतो
पण पछी तेनो निषेध करीश–एम जे माने छे तेने स्वभावनी रुचि नथी पण पुण्य–पापनी ज रुचि छे. जो तने
स्वभावनी रुचि होय अने सर्वे पुण्य–पाप–व्यवहारना निषेधनी रुचि होय तो स्वभाव सन्मुख थईने हमणां ज
निषेध करवो योग्य छे एम निर्णय कर. रुचिने मुदत न होय. श्रद्धा छे पण श्रद्धानुं कार्य नथी–एम न बने. श्रद्धामां
निषेध कर्या पछी पुण्य–पापने टळतां थोडो काळ लागे ते जुदी वात छे, पण जेने स्वभावनी रुचि छे अने पुण्य–
पापना निषेधनी श्रद्धा करवा जेवी छे–एवी भावना छे–तो ते श्रद्धामां तो पुण्य–पापनो निषेध वर्तमानमां ज करे.
वर्तमानमां श्रद्धामां पुण्य–पापनो आदर करे तो तेने तेना निषेधनी श्रद्धा ज क्यां रही? श्रद्धा तो पुरेपुरा स्वभावने
ज वर्तमान माने छे.
जेने स्वभावनी रुचि थई–स्वभावनो आदर थयो अने पुण्य–पाप विकल्पना निषेधनी रुचि तथा आदर
थयो, तेने अंतरमांथी अधीरज तूटी गई. हवे आखा स्वभावनी रुचिमां वच्चे जे कोई पण राग–विकल्प आवे
तेनो निषेध करीने स्वभाव तरफ ढळवुं–ए ज एक कार्य रह्युं. स्वभावनी श्रद्धाना जोरे तेनो निषेध कर्यो ते कर्यो–हवे
एवो कोई पण विकल्प के राग न आवे के जेमां एकताबुद्धि थाय. अने एकत्वबुद्धि वगर थता जे पुण्य–पापना
विकल्पो छे तेने टाळवा माटे श्रद्धामां अधीरज थती नथी, केमके मारा स्वभावमां ते कोई छे ज नहि–एम रुचि थई
पछी तेने टाळवानी अधीरज शेनी रहे? स्वभाव तरफ ढळीने तेनो निषेध कर्यो छे तेथी ते अल्पकाळमां टळी ज
जाय छे. ‘तेनो निषेध करुं’ एवो विकल्प होतो नथी पण स्वभावमां ते निषेधरूप ज छे तेथी स्वभावनो अनुभव–
विश्वास करतां तेनो निषेध स्वयं थई जाय छे.
ज्यां आत्माना स्वभावनी रुचि थई त्यां ज पुण्य–पापना निषेधनी श्रद्धा थई गई. आत्माना स्वभावमां
पुण्य–पाप नथी तेथी आत्मामां पुण्य–पापनो निषेध करवा जेवो छे–एवी रुचि थई त्यां ज श्रद्धामां पुण्य–पाप–
व्यवहारनो निषेध थई ज गयो. रुचि अने अनुभव वच्चे वार लागे तेनो पण निषेध ज छे. जेने स्वभावनी रुचि
थई छे तेने विकल्प तोडीने अनुभव करतां वार लागे तोपण ते विकल्पोनो तो तेने निषेध ज छे. जो विकल्पनो
निषेध न होय तो स्वभावनी रुचि शेनी? अने जो स्वभावनी रुचि वडे विकल्पनो निषेध वर्ते छे तो पछी ते
विकल्प तोडीने अनुभव थवामां तेने शंका शेनी? रुचि थया पछी जे विकल्प रहे तेनो पण रुचि निषेध ज करे छे
तेथी रुचि अने अनुभव वच्चे काळभेद नो स्वीकार नथी. जेने स्वभावनी रुचि थइ छे तेने रुचि अने अनुभव
वच्चे जे अल्पकाळ विकल्प होय तेनो रुचिमां निषेध छे, ए रीते जेने स्वभावनी रुचि थई छे तेने अंतरथी
अधीरज होती नथी, पण स्वभावनी रुचिना जोरे ज बाकीना विकल्पो तोडीने अल्पकाळमां स्वभावनो प्रगट
अनुभव करे छे.