रागने के विकल्पने आदरणीय माने छे तेने स्वभावनी
रुचि नथी, अने तेथी ते जीव व्यवहारनो निषेध करीने
स्वभावमां कदी ढळी शकशे नहि. सिद्ध भगवानने
रागादिनो सर्वथा अभाव ज थई गयो छे तेथी तेमने
हवे व्यवहारनो निषेध करीने स्वभावमां ढळवानुं रह्युं
नथी. पण साधक जीवने पर्यायमां रागादि विकल्पो,
व्यवहार वर्ते छे तेथी तेने ते व्यवहारनो निषेध करीने
स्वभावमां ढळवानुं छे.
व्यवहार के शास्त्राभ्यास वगेरे करी लउं–पछी तेनो
निषेध करीश’–एवुं आलंबन मोक्षार्थीने नथी, माटे तुं
पराश्रित व्यवहारनुं आलंबन छोडीने सीधे सीधो तुं
चैतन्यने स्पर्श, कोई पण वृत्तिना आलंबनना शल्यमां
न अटक. सिद्ध भगवाननी जेम तारा स्वभावमां एकलुं
चैतन्य छे ते चैतन्यस्वभावने ज सीधे सीधो स्वीकार,
तेमां क्यांय रागादि देखाता ज नथी; रागादि छे ज नहि
तो पछी तेना निषेधनो विकल्प केवो? स्वभावनी
श्रद्धाने कोईपण विकल्पनुं अवलंबन नथी. जे
स्वभावमां राग नथी तेनी श्रद्धा पण रागथी थती नथी.
ए रीते सिद्ध समान पोताना आत्माना ध्यान वडे
एकलुं चैतन्य छुटुं अनुभवाय छे, ने त्यां सर्व
व्यवहारनो निषेध स्वयमेव थई जाय छे. आ ज
साधकदशानुं स्वरूप छे. *
न होवा छतां पण ज्ञान ज्ञेय पदार्थोने जाणी ले छे, तेवी
समाधान– एम नथी, केमके वस्तुनी शक्तिनी बीजा
स्वीकारवुं जोईए) केमके जे शक्ति पदार्थोमां स्वतः
विद्यमान न होय ते शक्ति बीजा पदार्थोद्वारा करी शकाती
नथी.
गा. ११६ थी १२० नी श्री अमृतचंद्राचार्य देवकृत टीकामां
आवे छे. त्यां तेओश्रीए नीचे मुजब जणाव्युं छे–
तेने अन्य कोई करी शके नहि. अने ‘
परमपेक्षंते
शक्तिओ परनी अपेक्षा राखती नथी. त्यार पछी गाथा.
१२१ थी १२पनी टीकामां पण अक्षरशः ए ज शब्दो कह्या
छे. *
परमात्मप्रकाशनुं वांचन शरू थयुं छे. आ शास्त्रना कर्ता
श्रीयोगीन्द्रदेव छे अने टीकाकार श्रीब्रह्मदेव छे. आ शास्त्र
ऊच्च आध्यात्मिक भावोथी भरेलुं छे. बपोरे
समयसारनो आस्रवअधिकार वंचाय छे.
पर्वने ‘पर्युषणपर्व’ पण कहेवाय छे. जैनशासनमां आ
पर्व सौथी मुख्य छे. आ पर्वना दस दिवसो दरमियान
आत्मभानपूर्वक उत्तमक्षमा, निरभिमानता,
मायारहितपणुं, निर्लोभवृत्ति, सत्य, संयम, तप, त्याग,
अकिंचन्यपणुं तथा ब्रह्मचर्य–ए दश धर्मोनी भावना
तेमज तेना स्वरूपनुं कथन, तेनुं माहात्म्य अने तेनी
प्राप्ति माटेनो अभ्यास करवामां आवे छे.