Atmadharma magazine - Ank 047
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः२४७३ः २३७ः
दुःखथी छूटवानी ने सुखी थवानी साची रीत
वीर सं. २४७३ः अषाड सुद ३ पंचास्तिकाय गाथा १०४ उपर पूज्य गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान
पोते दुःखी छे एम जेने लागे छे अने ते दुःख टाळीने जे सुखी थवा मागे छे तेने दुःख नाश करीने सुखी
थवानो क्रम शुं छे ते आचार्य भगवान बतावे छे. पहेलां तो पोते वर्तमानमां दुःखी छे एम भासवुं जोईए. शरीर,
पैसा, स्त्री, मान, आबरू वगेरेनी अनुकूळता होय अने तेमां सुखबुद्धिथी पोताने सुखी ज मानी लीधो होय, तेवा
जीवो पोताने दुःखी मान्या वगर दुःख टाळवानो उपाय ज केम करे? आमां पात्रतानुं वर्णन पण आवी गयुं. कई
रीते? शरीर, पैसा वगेरेमां जेने सुख नथी भासतुं, पण सुख कांइक एनाथी जुदुं छे–एवो भास थयो छे अने तेथी
शरीर, पैसा, स्त्री वगेरेमांथी तीव्र रुचि टळी गई छे अने साचा सुखनो उपाय समजवानो कामी थयो छे; ए रीते,
जेने संसारमां दुःख लाग्युं छे ने तेनाथी मुक्त थवानी जिज्ञासा जागी छे एवा पात्र जीवने सुखनो उपाय अहीं
बतावे छे. संसारनी चारेय गतिमां दुःख छे एटले के जे भावे स्वर्गनो भव करवो पडे के मनुष्यनो भव करवो पडे
ते भाव पण दुःखदायक छे. चैतन्यना सहज वीतरागी आत्म–आनंदनो ज्यां विरह छे त्यां ज दुःख छे. ए दुःखनुं
कारण कोई पर पदार्थो नथी पण पोतानो अज्ञान भाव तथा राग–द्वेष ए ज दुःखनुं मूळ छे. अने ते दुःख टाळवा
माटे कोई पदार्थो दूर करवाना नथी पण साची समजणवडे पोतानो अज्ञानभाव ने राग–द्वेष ज दूर करवाना छे.
‘अमुक परवस्तु मने मळे तो हुं सुखी थाऊं’ ए मान्यता खोटी छे, परंतु ‘परवस्तुमां मारुं सुख छे ज नहि तेथी
स्वभावनी ओळखाणवडे परवस्तु उपरनी ममता छोडी दऊं तो हुं सुखी थाउं’–ए उपाय साचो छे. परवस्तु
मेळवीने सुखी थवानी जेने भावना छे तेने पोताना स्वाधीन सुखस्वभावनो विश्वास नथी.
आ ग्रंथनुं रहस्य शुद्धात्म पदार्थ छे, तेनुं प्रथम ज्ञान करवुं–ते ज सुखनो उपाय छे. पोतानो अंतरस्वभाव
पूरो छे तेने जाणवानुं ज ज्ञाननुं प्रयोजन छे, ए सिवाय बीजुं बधुं अप्रयोजनभूत छे. शास्त्रोनुं ज्ञान करे पण जो
शुद्धात्मस्वभावने ज जाणे तो जीवनुं कल्याण थाय नहि. आत्मस्वभाव जाणवामां जे ज्ञान रोकाय छे ते ज्ञानमां
अपूर्वपुरुषार्थ छे ते अज्ञानीने भासतो नथी. अंतरस्वभावमां जे ज्ञान वळे तेनी किंमत के महिमा अज्ञानीने नथी
पण बहारमां घणा शास्त्रो वगेरे जाणवामां जे ज्ञान रोकाय तेनी अज्ञानीने किंमत अने महिमा लागे छे, तेने
स्वाश्रय स्वभावनी रुचि नथी पण पराश्रय अने विकारनी ज रुचि छे. पराश्रयपणुं छोडाववा अहीं कहे छे के छ
द्रव्यो, नव पदार्थो वगेरेने जाणवा ते आ ग्रंथनुं तात्पर्य नथी पण शुद्धात्माने जाणीने वीतरागी भाव प्रगट करवो ते
ज आ ग्रंथनुं तात्पर्य छे. शुद्धात्म पदार्थने अनुलक्षीने ज्ञान करवुं ते ज प्रयोजन छे. पर पदार्थनो आश्रय नहि,
पापनो आश्रय नहि, पुण्यनो पण आश्रय नहि, भेद–व्यवहारनो पण आश्रय नहि, बधायनो आश्रय छोडीने
एकला शुद्धात्माने लक्षमां लईने तेना आश्रयमां टकवुं ते ज करवानुं छे. शुद्धात्माने समजीने तेने अनुसरीने ज
परिणमन करवानो उद्यम ते ज एक कर्तव्य छे, ते ज सुखनो उपाय छे, ने ते ज सर्व शास्त्रोनो सार छे. आत्माना
लक्ष वगर परने देखवुं–जाणवुं तो अनादिथी थाय छे, पछी परने जाणवामां शास्त्रो हो के देव–गुरु हो, पण तेनाथी
जीवनुं कल्याण नथी, तेथी अहीं कह्युं के स्वसन्मुख थईने शुद्धात्माने जाणवो ते ज कल्याणनुं कारण छे.
अव्रतभाव अने आसक्तिभाव छोडाववा पहेलां आत्मज्ञान कराववानुं तत्त्वार्थसार पा. ३०२मां कह्युं छे.
त्यां कह्युं छे के ‘कारणना नाशथी कार्यनो नाश थाय छे; तेथी विषयासक्ति घटाडवा पहेलां ज आत्मज्ञान प्रगट
करवानो आचार्यदेव उपदेश करे छे.’ मिथ्यात्व ए ज आसक्तिनुं मूळ छे. पहेलां तत्त्वज्ञान एटले के शुद्धात्मानुं ज्ञान
थया वगर अव्रत के आसक्ति छूटे ज नहि. दुःखथी छूटवानी रीत आ ज छे. जेने अज्ञान अने रागादिमां दुःख ज न
लागतां होय अने पैसा वगेरे होवाथी तेमां ज तृप्त–तृप्त थई गयो होय तो एवा जीवो पण स्वतंत्र छे,–एवा
अनंत संसारीने तो तत्त्वनी वात रुचती नथी. पण जेने अज्ञानदशानुं दुःख भासे छे ने तेनाथी छूटीने मुक्त थवानी
जेने झंखना छे एवा अल्पसंसारीने माटे उपाय बतावे छे के शुद्धात्माने जाणवो ए ज मूळ प्रयोजन छे.
जेम बगलुं नदी कांठे जईने एकाग्र थई जाय, पण तेनुं ध्यान क्यां छे?–माछलां पकडवामां. तेम कोई जीव
तत्त्वनो उपदेश सांभळवा जाय पण त्यां शुद्ध चैतन्यने तो ध्यानमां के लक्षमां ल्ये नहि अने संसारना कामोना
विचारमां तल्लीन थई जाय–तो तेने कांई लाभ थाय नहि. पण संसारना विचार छोडीने शुद्ध स्वभावने लक्षमां
लईने ते तरफ परिणति करीने उद्यमी थवुं ते ज दुःखमुक्त थवानो उपाय छे.
भेदविज्ञानी जीवोए स्वाश्रयनी प्रतीतिवडे मिथ्यात्वनो तो अभाव कर्यो छे; पछी शुं करे छे? पछी पण कांई
पराश्रय करवानुं आवतुं नथी पण जे स्वाश्रयस्वभावनी