Atmadharma magazine - Ank 047
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २३८ः आत्मधर्मः ४७
श्रद्धाथी परमां सुखबुद्धिरूप मिथ्यात्वनो अभाव कर्यो ते ज स्वभावना आश्रये विशेष पुरुषार्थवडे आत्माना
अनाकुळ शांत उपशमरसमां मग्न थईने राग–द्वेषथी रहित थाय छे अने बंधनो नाश करीने मुक्ति सुखने अनुभवे
छे. आ रीते, धर्मनी शरूआतथी पूर्णता सुधी स्वाश्रय ज छे, पराश्रयभावे धर्म थतो नथी. आत्माना स्वभावने
लक्षीने प्रयत्न करवो ते धर्म पुरुषार्थ छे, ते धर्मनी क्रिया छे, ने ते ज सुखी थवानो उपाय छे. *
* * * * *
द्रव्यद्रष्टि अने पर्यायद्रष्टि तथा तेमनुं प्रयोजन
गुण–पर्यायोनो पिंड ते द्रव्य छे; आत्मद्रव्य पोताना स्वभावथी टकेलुं छे पण रागने लीधे ते टकेलुं नथी.
आत्माना स्वरूपमां राग नथी तेमज रागवडे आत्माना स्वरूपनी प्राप्ति थती नथी.
त्रिकाळी द्रव्य स्वरूपने स्वीकार्या वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि. केमके पर्याय तो एक समय पुरती ज छे,
बीजा समये तो तेनी नास्ति थई जाय छे, तेथी पर्यायना लक्षे एकाग्रता के सम्यग्दर्शन थई शकतुं नथी. केवळज्ञान
पण एक समय पुरती पर्याय छे, परंतु एवी अनंतअनंत पर्यायोने अभेदपणे संघरीने द्रव्य पडयुं छे, अर्थात्
अनंती केवळज्ञान पर्यायो प्रगटवानी शक्ति द्रव्यमां छे, माटे केवळज्ञानना माहात्म्य करतां द्रव्यस्वभावनुं माहात्म्य
अनंतु छे. आ समजवानुं प्रयोजन ए छे के पर्यायमां एकत्वबुद्धि छोडीने द्रव्यस्वभावमां एकत्वबुद्धि करवी;
एकत्वबुद्धि एटले ‘आ ज हुं’ एवी मान्यता. पर्यायना लक्षे ‘आ ज हुं’ एम पर्याय जेटलो ज पोताने न मानतां,
त्रिकाळी द्रव्यना लक्षे ‘आ ज हुं’ एम द्रव्यस्वभावनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे. केवळज्ञानादि कोई पण पर्याय
एक समय पुरती अस्तिरूपे छे, बीजा समये तो तेनी नास्ति थई जाय छे, माटे पर्याय जेटलो आत्माने मानवाथी
सम्यग्दर्शन थतुं नथी. अने जे द्रव्यस्वभाव छे ते तो त्रिकाळ एकरूप सत् अस्तिरूपे छे, केवळज्ञान प्रगट हो के न हो
तेनी पण जेने अपेक्षा नथी एवा ते स्वभावने मानवाथी ज सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.
एक अवस्थामांथी बीजी अवस्था आवती नथी. पण द्रव्यमांथी ज आवे छे अर्थात् एक पर्याय पोते बीजी
पर्यायरूपे परिणमती नथी पण क्रमबद्ध एक पछी एक पर्यायरूपे द्रव्यनुं ज परिणमन थाय छे तेथी पर्यायद्रष्टि
छोडीने द्रव्यद्रष्टि करवाथी ज शुद्धता प्रगटे छे.
पर्याय खंड–खंडरूप छे, ते सदाय एक सरखी रहेती नथी, अने द्रव्य अखंडरूप छे, ते सदाय एक सरखुं रहे
छे. माटे द्रव्यद्रष्टिथी शुद्धता प्रगटे छे.
पर्याय क्षणिक छे, द्रव्य त्रिकाळ छे; त्रिकाळीना ज लक्षे एकाग्रता थई शके छे अने धर्म प्रगटे छे, पण
क्षणिकना लक्षे एकाग्रता थती नथी, तेम ज धर्म प्रगटतो नथी.
पर्याय क्रमवर्ती स्वभाववाळी होवाथी, एक समये एक ज होय छे अने द्रव्य तो अक्रमवर्ती स्वभाववाळुं
अनंत पर्यायोनो अभेद पिंड छे, ते दरेक समये पुरेपुरुं छे; छद्मस्थने वर्तमान पर्याय अपूर्ण छे अने द्रव्य पुरुं छे,
तेथी परिपूर्णताना लक्षे ज सम्यग्दर्शन अने वीतरागता प्रगटे छे पण अपूर्णताना लक्षे सम्यग्दर्शन के वीतरागता
प्रगटतां नथी, परंतु ऊलटो राग उत्पन्न थाय छे. सम्यग्दर्शन पछी पण जीवने परिपूर्णताना लक्षे ज क्रमे क्रमे
चारित्र वीतरागता ने सर्वज्ञता प्रगटे छे.
मुमुक्षुओए उपर प्रमाणे द्रव्य अने पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान करीने, त्रिकाळी द्रव्य स्वभाव तरफ रुचि
(उपादेयबुद्धि) करीने त्यां ज एकता करवी योग्य छे अने पर्यायनी एकत्वबुद्धि छोडवी योग्य छे. आ ज धर्मनो
उपाय छे.
जेने पर्यायद्रष्टि होय ते जीव रागने पोतानुं कर्तव्य माने ज अने रागथी धर्म माने ज, केमके पर्यायद्रष्टिमां
तो रागनी ज उत्पत्ति छे; अने रागनो संबंध परद्रव्यो साथे ज होवाथी, पर्यायद्रष्टिवाळो जीव परद्रव्योना लक्षे
परद्रव्योनो पण कर्ता पोताने माने–आनुं ज नाम मिथ्यात्व छे, आ ज अधर्म छे.
पण, जेने द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि थई छे ते जीव कदी रागने पोतानुं कर्तव्य माने ज नहि अने तेमां धर्म माने
ज नहि, केमके स्वभावमां रागनो अभाव ज छे. पर्यायना रागनुं कर्तापणुं पण जे न माने ते परद्रव्यनुं तो कर्तापणुं
माने ज केम? एटले तेने परथी अने रागथी भिन्न स्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञान अने वीतरागतानी ज उत्पत्ति थया
करे–आनुं ज नाम सम्यग्द्रष्टि छे, अने आ ज धर्म छे.
माटे बधाय आत्मार्थि जीवोए अध्यात्मना अभ्यास वडे द्रव्यद्रष्टि करवी, ए ज प्रयोजनभूत छे. द्रव्यद्रष्टि
कहो के शुद्धनयनुं अवलंबन कहो, निश्चयनयनो आश्रय कहो–ए परमार्थे एक ज छे.
(नियमसार प्रवचन वखते चर्चा)