Atmadharma magazine - Ank 047
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः२४७३ः २३९ः
जैन शासन–एटले–स्वाश्रय अने वीतरागता
(वीर संवत २४७३ः जेठ वद १४ पंचास्तिकाय गाथा १०० उपर पूज्य गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान)
अज्ञानीओ एम माने छे के मारे अमुक पदार्थो वगर न चाले–रोटला वगर न चाले, पैसा वगर न चाले,
देव–गुरु–शास्त्र वगर न चाले–एम माने छे; ए पराश्रयपणानी मान्यता ज दुःखनुं मूळ छे. आत्मानो स्वभाव
परथी जुदो ज छे अने त्रणे काळे ते पर पदार्थो वगर स्वयं पोताथी टकेलो छे.
आखी दुनिया पर पदार्थो वगर ज चलावे छे, केमके दरेक वस्तुमां परनो तो अभाव ज छे. दरेक आत्मा
परना अभाव स्वरूप छे एटले के ते बधायथी जुदो ज छे, ने बधायथी जुदो पोताथी ज टकेलो छे. पोतामां बधाय
पर द्रव्योनो अभाव ज छे, तो विचारो के कया पदार्थ वगर आत्माने नथी नभतुं? कोई कहे के खोराक वगर
आत्माने नथी नभतुं. तो तेनुं समाधानः–खोराकनो तो आत्मामां अभाव छे. शुं खोराकना परमाणुओ आत्मामां
प्रवेशी जाय छे? त्रणेकाळे खोराक आत्मामां प्रवेशतो ज नथी, आत्मा खोराक वगर ज टकेलो छे. शुं चैतन्यतत्त्वने
नभवा माटे जडनो आश्रय होय? चैतन्यतत्त्व पोताथी नभेलुं छे, खोराकथी नहि. खोराक न होय त्यारे पण शुं
आत्मा नथी परिणमतो? खोराकना अभावमां शुं आत्मानुं परिणमन अटकी जाय छे?–तेम तो थतुं नथी, केमके
चैतन्यतत्त्वने नभवा माटे खोराकनी अपेक्षा नथी. दरेक पदार्थ पोताना ज द्रव्यथी–क्षेत्रथी–काळथी ने भावथी नभे
छे. ज्ञानी के अज्ञानी, सिद्ध के निगोद, ने आत्मा के परमाणु–बधायने त्रणे काळ पर वगर ज नभे छे, मात्र अज्ञानी
पोताना स्वाश्रयने छोडीने पराश्रय माने छे, ते ज भूल छे अने तेथी ज ते दुःखी थाय छे.
आत्मा पोते पोताना असंख्य प्रदेशमां रहेलो छे अने पोताना गुणथी पूरो छे, ते पोतानी अवस्थामां ज
परिणमे छे. ते सदाय पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी ज टकेल छे. पर्यायमां जे विकार थाय ते विकार परना लक्षे
थतो होवा छतां पण परना आश्रये टकेलो नथी–कर्मना आश्रये विकार टकेलो नथी पण ते पर्यायना ज आश्रये
विकार टकयो छे. तेम ज कर्मो पण जीवना विकारना आश्रये टकेलां नथी, ते स्वयं तेनी अवस्थाथी टकेलां छे.
आम छए द्रव्यो स्वतंत्र छे, कोई कोईना आश्रये टकेलो नथी. छए द्रव्योनुं निरपेक्षपणुं जणावीने
पराश्रयथी छोडावीने स्वाश्रय स्वभाव तरफ ढाळवानुं ज प्रयोजन छे, परंतु छ द्रव्योना लक्षमां अटकवानुं प्रयोजन
नथी.
जीव पर द्रव्योना आश्रये तो नभेलो नथी, केमके जो परना आश्रये ते नभतो होय तो तेनुं स्वतंत्र
अस्तित्व शुं? जीव कोई पण परद्रव्योथी नभतो नथी ने कोईथी दुभातो नथी. पोतानी पर्यायमां जे विकार थाय ते
विकारना आश्रये पण जीव टकेलो नथी. केम के विकारनो तो सर्वथा नाश थई जाय छे, तेथी जो तेना आश्रये जीव
नभेलो होय तो विकार साथे तेनो पण नाश थई जाय. जीव तो पोताना ज्ञानथी टकेलो छे, ज्ञान वगर तेने एक
क्षण पण चाले नहि. आम जाणीने परद्रव्यना आश्रयनी बुद्धि तेम ज विकारना आश्रयनी बुद्धि छोडीने स्वभावना
आश्रयमां टकवुं ते ज तात्पर्य छे.
त्रणेकाळना तीर्थंकरोनो एक ज प्रकारे उपदेश छे के तुं सर्वनो ज्ञाताद्रष्टा छो. तारी पर्यायमां जे रागादि थाय
तेनो पण तुं ज्ञाता छो. तारा स्वभावमां अभेदता ने स्थिरता करवी ते ज तारुं प्रयोजन छे. स्वभावमां एकता थाय
अने विकार उपर द्रष्टि न जाय ते ज तात्पर्य छे. स्वभावमां अभेद थवाथी विकार तूटी जाय छे. ‘विकार टाळुं’ एम
जेनी द्रष्टि छे तेने पर्याय उपर द्रष्टि छे, पर्यायद्रष्टि राखवाथी विकार टळतो नथी पण स्वभावमां द्रष्टि करीने
एकाग्रता करतां ज विकार टळी जाय छे. आत्मस्वभाव परिपूर्ण छे, तेमां विकार नथी ने भेद पण नथी;–एम अखंड
स्वभावनी द्रष्टि करवानुं ज मूळ प्रयोजन छे. आ अखंड स्वभावनी द्रष्टि करवी ते ज ‘केवळी भगवाने जोयुं होय
तेम थाय’ एवी प्रतीत छे, ते ज वस्तुनी क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा छे, ते ज द्रव्यद्रष्टि छे, ते ज शुद्धनयना विषयनुं लक्ष
छे, ते ज सम्यग्दर्शन छे, ते ज धर्म छे, ए ज अनंता शास्त्रोनुं तात्पर्य छे, ने ए ज जीवनुं प्रयोजन छे. एना वगर
बीजी बधी वात जुठ्ठी छे. बधामांथी सार काढीने जो ए प्रयोजन सिद्ध करे तो ज जीवनुं बधुं साचुं छे. अभेद
स्वभावनी मुख्यता ने भेदनी गौणता अर्थात् आत्मस्वभावनो ज आदर–ए जैनशासननो मूळ पायो छे.
जीवनुं मूळ प्रयोजन वीतरागभाव छे; वीतरागभावना बे प्रकार छे– (१) द्रष्टिमां वीतरागता अने (२)
चारित्रमां वीतरागता. पहेलां द्रष्टिमां वीतरागता थाय छे. ते क्यारे थाय? मारा अभेद चैतन्य स्वभावमां राग
नथी, पर्यायमां राग थाय छे ते सम्यग्दर्शननुं–वीतरागी द्रष्टिनुं कारण नथी, पण ते राग साथेनी एकता तो
मिथ्यात्वनुं कारण छे, अने ते रागनो आश्रय छोडीने स्वभावनी एकता