त्यां रागनो निषेध स्वयं वर्ते छे. व्यवहारनो आश्रय मानवो ते मिथ्यात्व छे, ने स्वभावना आश्रये व्यवहारना
आश्रयनो लोप करवो ते सम्यग्दर्शन छे. ‘आत्मामां ज्ञानादि अनंत गुणो छे.’ एम कहेतां जो अभेद
आत्मस्वभावने लक्षमां ल्ये तो ते प्रयोजन छे, पण ‘आत्मामां अनंत गुण छे’ एम कहेवुं ते व्यवहार छे, तेनो
आश्रय प्रयोजनवान नथी. प्रयोजन तो तेनो निषेध करीने अभेद स्वभावमां ढळवानुं छे. जो अभेद स्वभाव न
समजे अने ते भेदने ज वळगी रहे तो ते जीव प्रयोजनने समज्यो नथी. परने अने आत्माने संबंध नथी,–ए
समजवानुं प्रयोजन शुं? पर साथे संबंध नथी एटले पर लक्षे जे विकार थाय ते मारुं स्वरूप नथी एम पर साथेनो
संबंध तोडीने तेमज पोतानी पर्यायनुं लक्ष पण छोडीने अभेद स्वभावनी द्रष्टि करवी ते ज आत्मानुं प्रयोजन छे.
होय छे, ते वखते पण तेने स्वभावनी श्रद्धा केवी होय छे–ए ओळखाववानुं प्रयोजन छे.
घणा व्यवहारना आग्रही कहे छे के चरणानुयोगमां तो शुभरागनी क्रियाओनुं वर्णन छे. परंतु तेनुं तात्पर्य शुं? शुं
चरणानुयोग राग करवानुं कहे छे?–नहि. चारे अनुयोगोना कथननुं तात्पर्य वीतरागी भाव ज छे.
थईने द्रव्यद्रष्टि थई होय छे. कोई जीव क्रमबद्ध पर्यायनी वात तो करे परंतु परथी जराय उदास थाय नहि ने
स्वाश्रयमां ढळे नहि तो ते मात्र वातोडीओ छे पण ते तात्पर्य समज्यो नथी. कोई पण एक साचो न्याय समजे तो
तेमांथी
पाडे, परमार्थनो उल्लास न करे अने परमार्थनी वातमां वच्चे व्यवहार लावीने मूके–एवा जीवो सत्नो उपदेश
श्रवण करवाने लायक नथी. पुरुषार्थसिद्धि उपायनी छठ्ठी गाथामां कह्युं छे के–जे जीव केवळ व्यवहारने ज परमार्थ
समजी ल्ये छे ते जीव उपदेशना श्रवणने लायक नथी. व्यवहारनो हेतु परमार्थ बताववानो छे, तेने बदले व्यवहारमां
ज जे अटकी गयो, ते जीव वीतरागता तरफ ढळ्यो नहि पण रागने ज पोषण कर्युं. शुद्धस्वभावनी श्रद्धा अने
स्थिरतारूप वीतराग भाव तथा रागनो निषेध–ए ज प्रयोजन छे.
मारा परिणाममां कषाय न करुं, अने कषाय थाय ते छोडुं–एम माने तो तेने पोता तरफ जोवानो अवकाश छे.
खरेखर तो ‘पोताने कषाय थाय ते छोडवो’ ए वात पण पर्यायद्रष्टिनी छे, नास्तिनी छे, त्यागनी छे. कषाय छे
अने छोडुं–ए बन्ने वात पर्यायद्रष्टिनी छे; पण मारो त्रिकाळी स्वभाव रागरहित ज छे–एवी वीतरागी प्रतीति
कराववानो ज मूळ हेतु छे, एवी वीतरागी प्रतीति करतां रागनो निषेध थई जाय छे.
टकीने परथी जुदापणुं स्वीकारे छे, परंतु परना आश्रयमां टकीने परथी जुदापणुं स्वीकारी शके नहि. ‘हुं परथी जुदो
छुं’ एटले के ‘मारा तत्त्वने टकवा माटे परनी जरूर नथी, मारा ज आश्रये मारुं तत्त्व टकेलुं छे, मारे कोई परनी
अपेक्षा नथी.’ एवो स्वाश्रयभाव करवो ते ज वीतरागतानुं मूळ छे, अने तेमां ज जीवनुं सुख छे. स्वाश्रयपणुं अने
वीतरागता ए ज जैनधर्मनी विशेषता छे.