Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 2 of 17

background image
। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।


वर्ष पांचमुं : संपादक : कारतक
रामजी माणेकचंद दोशी
अंक पहेलो वकील २४७४
आत्म – भावना
– दरेक जीवोए करवायोग्य एकमात्र कर्तव्य –
सहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निज–
निरंजनशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पस
माधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवे–दनज्ञानेन
स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ–
पंचेन्द्रिय विषयव्यापार–मनो–वचनकायव्यापार–भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मख्याति–
पूजालाभद्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादिसर्वविभा
वपरिणामर हितशून्योऽहं; जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचन कायैः
कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयनयेन। तथा सर्वेऽपि जीवाः, इति निरंतरं
भावना कर्तव्येति।।
जुओ:– श्री समयसार–हिंदी, जयसेनाचार्यकृत टीका. पृ. ३७८–९ तथा ५५८ थी ५६७;
अने श्री परमात्म प्रकाशमां टीकाकारनुं अंतिम कथन.
गुजराती भाषांतर
हुं सहज शुद्ध ज्ञान ने आनंद जेनो एक स्वभाव छे एवो छुं; हुं निर्विकल्प छुं; हुं उदासीन छुं; हुं निज
निरंजन शुद्ध आत्माना सम्यक् श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक जे निर्विकल्प समाधि तेनाथी
उत्पन्न वीतराग–सहजानंदरूप सुखनी अनुभूति मात्र जेनुं लक्षण (–स्वरूप) छे एवा स्वसंवेदन ज्ञान वडे
स्वसंवेद्य (पोताथी वेदावायोग्य) –गम्य (जणावायोग्य) –प्राप्य (प्राप्त थवा योग्य) –एवो भरितावस्थ (–
भरेली अवस्थावाळो, परिपूर्ण स्वरूप) छुं; हुं राग–द्वेष–मोह, क्रोध–मान–माया–लोभ, पांच ईन्द्रियोनो
विषयव्यापार, मन–वचन–कायानो व्यापार, भावकर्म–द्रव्यकर्म–नोकर्म, ख्याति–पूजा–लाभनी तेमज द्रष्ट–श्रुत–
अनुभूत भोगोनी आकांक्षारूप निदान, माया तथा मिथ्यारूप त्रण शल्य–ईत्यादि सर्व विभाव परिणामरहित
शून्य छुं. त्रणे लोकमां, त्रणे काळे शुद्ध निश्चयनये हुं आवो छुं तथा बधाय जीवो एवा छे–एम मन–वचन–
कायाथी तथा कृत–कारित–अनुमोदनथी निरंतर भावना कर्तव्य छे.
वार्षिक लवाजम छुटक अंक
त्रण रूपिया चार आना
• आत्मधर्म कार्यालय – मोटा आंकडिया – काठियावाड •