माधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवे–दनज्ञानेन
स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ–
पंचेन्द्रिय विषयव्यापार–मनो–वचनकायव्यापार–भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मख्याति–
पूजालाभद्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादिसर्वविभा
वपरिणामर हितशून्योऽहं; जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचन कायैः
कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयनयेन। तथा सर्वेऽपि जीवाः, इति निरंतरं
भावना कर्तव्येति।।
उत्पन्न वीतराग–सहजानंदरूप सुखनी अनुभूति मात्र जेनुं लक्षण (–स्वरूप) छे एवा स्वसंवेदन ज्ञान वडे
स्वसंवेद्य (पोताथी वेदावायोग्य) –गम्य (जणावायोग्य) –प्राप्य (प्राप्त थवा योग्य) –एवो भरितावस्थ (–
भरेली अवस्थावाळो, परिपूर्ण स्वरूप) छुं; हुं राग–द्वेष–मोह, क्रोध–मान–माया–लोभ, पांच ईन्द्रियोनो
विषयव्यापार, मन–वचन–कायानो व्यापार, भावकर्म–द्रव्यकर्म–नोकर्म, ख्याति–पूजा–लाभनी तेमज द्रष्ट–श्रुत–
अनुभूत भोगोनी आकांक्षारूप निदान, माया तथा मिथ्यारूप त्रण शल्य–ईत्यादि सर्व विभाव परिणामरहित
शून्य छुं. त्रणे लोकमां, त्रणे काळे शुद्ध निश्चयनये हुं आवो छुं तथा बधाय जीवो एवा छे–एम मन–वचन–
कायाथी तथा कृत–कारित–अनुमोदनथी निरंतर भावना कर्तव्य छे.