Atmadharma magazine - Ank 050
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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[ता. १५ मी ओगष्टनी प्रभाते पूज्य
गुरुदेवश्रीए करेल मांगळिकना आधारे]
: १८ : आत्मधर्म : मागसर : २४७४ :
स्वतंत्रता
अने सुख

हे जीवो! जो तमे तमारी स्वतंत्रता अने सुख चाहता हो तो परना आश्रये मारुं सुख छे एवी मान्यता
छोडो...पर वस्तु उपर मारी सत्ता चाले छे एवी मान्यता छोडो. ‘मारा सुखनो कोई पर साथे संबंध नथी, हुं
बधाय पर पदार्थोथी छूटो छुं, मारा ज्ञान साम्राज्यमां मने विघ्न करनार कोई नथी अने हुं मारा ज्ञान
साम्राज्यवडे बधा पदार्थोने जेम जाणुं छुं तेम ज तेमां थाय छे’–आवी यथार्थ ओळखाणपूर्वक पराश्रयभाव
छोडीने स्वाश्रयभावमां टकवुं ते ज स्वतंत्रता छे–ते ज सुख छे.
स्वतंत्रता तेने कहेवाय के जेमां पोताना सुख माटे कोई बीजाना आश्रयनी जरूर न पडे; पण पोते ज
स्वाधीनपणे सुखी होय; अने पोतानुं स्वाधीन सुख एवुं होय के जेने कोई पण संयोगो हानि न पहोंचाडी
शके! एवो स्वाधीन सुखरूप तो आत्मस्वभाव छे. ते स्वाधीनता कोण मेळवी शके?–अने पराधीनतानी
गुलामी कोण तोडी शके?
मारुं सुख मारा आत्मामां छे, कोई पण संयोगोने आधीन मारुं सुख नथी, पण मारुं ज्ञान ज स्वयमेव
सुखशांतिरूप छे–एम जेने पोताना ज्ञानस्वभावनी ओळखाण न होय तेवा अज्ञानी जीवो ‘मारुं सुख
परवस्तुना आधारे छे, अने पर संयोगो अनुकूळ होय तो ज मारुं सुख टकी शके’ एम माने छे; तेवा जीवो
सदाय पराश्रयपणे संयोगोमांथी सुख ईच्छे छे–एटले तेओ संयोगोना गुलाम छे, तेओ स्वाधीन
आत्मस्वभावने नहि जाणता होवाथी कदी पण स्वतंत्रता पामता नथी. पोताना सुख माटे पराश्रयपणुं मानवुं
ते ज महान गुलामी छे अने तेनुं ज अनंत दुःख छे, ए गुलामी अज्ञानपणे जीव अनादिथी करतो आवे छे.
ए गुलामीनां बंधन कोण छोडे?
ए गुलामी जीवे पोते पोताना स्वभावने भूलीने ऊंधी मान्यताथी स्वीकारी छे. तेथी पोते ज
स्वभावनी साची ओळखाणथी ते गुलामीना बंधनने तोडी शके छे, पण तेने गुलामीना बंधनमांथी मुक्त
करनार कोई बीजो नथी.
ज्ञानीओए पोतानो स्वभाव जाण्यो छे; आत्मानो स्वभाव संपूर्ण स्वतंत्र पोताथी ज परिपूर्ण सुखरूप
छे तेने कोई पण संयोगोनी अपेक्षा नथी–एम ज्ञानीओ जाणता होवाथी तेओ कदी पण पोताना सुख माटे
पराश्रयनी जरूर मानता नथी; तेथी एवा ज्ञानीओ ज स्वाश्रय स्वभावनी एकाग्रतारूप अहिंसाना जोरे
पराश्रयरूप गुलामीना बंधनने सर्वथा छेदीने, संपूर्ण स्वत्रंतदशामां सिद्ध भगवानपणे बिराजे छे.
एवी परम आत्मस्वतंत्रता जयवंत रहो.
एवी परमस्वतंत्रता प्राप्त करवानो एक मात्र उपाय भेदज्ञान छे, माटे आत्मानी साची स्वतंत्रता अने
सुखना ईच्छुक सर्व जीवोए ए भेदज्ञाननो ज अभ्यास करवो ते कर्तव्य छे. जेने भेदज्ञान नथी ते ज गुलाम छे,
जेने भेदज्ञान छे तेओने ज स्वतंत्रतानी शरूआत थई छे, ने तेओ पूर्ण स्वतंत्रतानी साधना करीने सिद्धदशा
प्रगट करे छे; ते ज स्वतंत्रता ने सुख छे.
. कतव्य .
देव–गुरु–धर्म उपर आफत आवे त्यारे राग–द्वेष करवो जोईए–एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. देव–गुरु–धर्मने
खातर पण राग–द्वेष कर्तव्य नथी. जीवने हरेक प्रसंगे–हरेक समये वीतराग भाव ज कर्तव्य छे, रागभाव कयारे य पण
कर्तव्य नथी. ज्यारे वीतराग भाव पूरो न थई शके अने देव–गुरु–शास्त्र वगेरे उपर राग–द्वेष थाय त्यारे पण ते
कर्तव्य नथी. जे रागने कोई पण वखते कर्तव्य माने छे ते पोताना वीतरागी ज्ञान स्वभावने मानतो नथी, ते
मिथ्याद्रष्टि छे. अने जेणे पोताना वीतरागी ज्ञानस्वभावने जाण्यो छे ते जीवो कोई पण वखते रागने कर्तव्य मानता
नथी, पण रागरहितपणे बधानुं ज्ञायक रहेवुं ए ज एक कर्तव्य माने छे.
आत्मानो स्वभाव ज्ञान छे अने ज्ञाननो स्वभाव बधाने मात्र जाणवानो छे, जाणवामां कांईपण रागद्वेष
करवो ते ज्ञाननो स्वभाव नथी. जे राग थाय ते ज्ञानस्वभावथी भिन्न छे–आवुं भेदविज्ञान करवुं ते धर्मी जीवोनुं
कर्तव्य छे–ए भेदविज्ञान ज धर्म छे. जेम देव–गुरु–धर्मना कारणे राग–द्वेष कर्तव्य नथी तेम देश–कुटुंब के शरीरादि कोई
पण कारणे रागद्वेष कर्तव्य नथी. पण ज्ञान अने वीतराग भाव ज त्रणेकाळे कर्तव्य छे. (–अष्टपाहुड प्रवचनोमांथी)