Atmadharma magazine - Ank 054
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 2 of 17

background image
। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।
वर्ष पांचमुं : संपादक : चैत्र
रामजी माणेकचंद दोशी
अंक छठ्ठो वकील २४७४
भेदविज्ञानीनो अभिप्राय
आत्मानुं लक्षण चैतन्य छे, चैतन्यनो स्वभाव मात्र जाणवानो छे.
‘आ सारुं के आ खराब’ एवी वृत्ति पण चैतन्यमां नथी. जेम आंख पर
द्रव्योथी भिन्न रहीने तेने जाणे छे, पण परद्रव्योमां कांई करती नथी, तेम ज्ञान
पण परने जाणे छे, परंतु तेमां कांई ज करतुं नथी. बंगाळ प्रांतमां अनाज
सडी गयुं अने घणा माणसो मरी गया, त्यां अमुक माणसोए ध्यान न राख्युं
अने बेदरकारी करी तेथी एवुं बन्युं–एम अज्ञानी माने छे, पण खरेखर तेम
नथी. अनाज सडयुं अने माणसो मरी गयां ते कोईनी बेदरकारीने कारणे थयुं
नथी, परंतु एके एक दाणो तेना पोताना कारणे परिणमीने सडी गयो छे अने
जे माणसो मरी गया ते तेमनुं आयुष्य पूर्ण थवाथी ज मर्या छे, तेमां कोई
फेरफार करवा समर्थ नथी. कोई पण जीव पोताना भाव सिवाय अन्यमां शुं
करी शके छे? कांई ज करी शके नहि. ‘अनाज न सडे अने माणसो न मरे’
एवो भाव मात्र जीव करी शके, परंतु ते परद्रव्योनी क्रियामां कांई पण फेरफार
करी शके नहि. हे भाई! बहारना द्रव्योनुं तो जेम थवानुं तेम ज थवानुं, तारा
ज्ञाननो स्वभाव तो जाणवानो ज छे. जुओ तो खरा, आमां ज्ञाननी केटली
शांति! ज्ञानने कोई विघ्न करनार नथी अने कोई मददगार नथी. जेणे आवो
ज्ञानस्वभाव स्वीकार्यो तेने अभिप्रायमांथी तो सर्व राग–द्वेष बंधभाव टळी
गया एटले के अभिप्रायथी तो ते मुक्त थयो; हवे ते ज अभिप्रायना जोरे
अल्पकाळे बंधभावोने सर्वथा छेदीने मुक्त थशे.
[श्री समयसार मोक्ष अधिकार उपरना व्याख्यानमांथी]
वार्षिक लवाजम छुटक अंक
त्रण रूपिया चार आना
आत्मधर्म कार्यालय – मोटाआंकडीया – काठियावाड