Atmadharma magazine - Ank 054
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ८४ : आत्मधर्म चैत्र : २४७४
तो तेनुं परिणमन विकारी थतुं जाय. माटे पहेलांं स्वभावनी श्रद्धा करवी ते ज वीतरागतानो मूळ उपाय छे.
सम्यग्द्रष्टि जीवो अभिप्राय अपेक्षाए वीतराग छे, अने ते ज अभिप्रायपूर्वकना विशेष परिणमनथी चारित्र
अपेक्षाए वीतरागता प्रगटे छे. पहेलांं अभिप्राय अपेक्षाए वीतरागता प्रगट्या वगर कोई जीवने चारित्र
अपेक्षाए वीतरागता प्रगटे नहि. एटले के सम्यग्दर्शन वगर कदी पण सम्यक्चारित्र प्रगटे नहि.
(१९७) श्रद्धागुण चारित्रगुणना कार्यनी भिन्नता
‘रागरहित चारित्रदशा प्रगटे त्यारे ज साची श्रद्धा थई कहेवाय, पण ज्यां सुधी राग होय त्यां सुधी
राग–रहितपणानी श्रद्धा थई शके नहि’ एम जे माने छे ते जीवे आत्माना श्रद्धा–गुणने अने चारित्रगुणने
स्वीकार्या नथी–एटले खरेखर तेणे आत्माने ज स्वीकार्यो नथी; तेनी द्रष्टि राग उपर छे पण आत्मस्वभाव
उपर नथी. राग वखते पण तारो आत्मस्वभाव शुं नाश पामी गयो छे? –स्वभाव तो त्रिकाळ छे, तो जे
स्वभाव छे ते स्वभावनी श्रद्धा थई शके छे. पर्यायमां राग होवा छतां ते पर्यायनी द्रष्टि छोडीने स्वभावनी
द्रष्टिथी सम्यग्दर्शन प्रगट थई शके छे. राग होय त्यां सुधी सम्यग्दर्शन न थाय एम जेणे मान्युं छे तेणे
चारित्रगुणनुं अने श्रद्धागुणनुं कार्य एक ज मान्युं छे, पण श्रद्धाना भिन्न कार्यने मान्युं नथी एटले के श्रद्धा
गुणने ज मान्यो नथी.
(१९८) रागनो त्याग कोण करी शके?
तीर्थंकर नामकर्मना कारणरूप जे सोळ भावनाओ छे तेमां सौथी पहेलांं ज ‘दर्शनविशुद्धि’ कही छे केम के
बधामां ते मुख्य छे; ते तो अवश्य होवी ज जोईए. ते भावनाओमां ज्यां त्याग अने तप आवे छे त्यां
शक्तिः त्याग तप एटले के शक्ति प्रमाणे त्याग अने तप’ एम कह्युं छे. जेने पोतानी संपूर्ण रागरहित
शक्तिनुं भान होय तेने पोतानी पर्यायमां केटला त्यागनी शक्ति छे तेना प्रमाणनी खबर पडे. परंतु जेणे हजी
संपूर्ण रागरहित अरागी आत्मशक्तिने जाणी ज नथी तेने रागनो त्याग केवो? रागथी भिन्न स्वभाव शुं
अने राग शुं–एना भिन्न भिन्न स्वरूपने जाणे तो स्वभावनी एकाग्रतावडे रागनो त्याग करे. पण जे राग
अने आत्माने एक पणे ज मानी रह्यो छे ते जीव रागनो त्याग केवी रीते करे? शुभराग आत्माना अरागी
स्वभावने मदद करे ए मान्यता अभव्य जेवी छे, अभव्य पण एवुं तो माने छे. जो अभव्य जीवने धर्म थाय
तो, ‘रागथी आत्माने लाभ थाय’ एवी मान्यतावाळाने धर्म थाय.
(१९९) परवस्तु आत्माने लाभ–नुकशान केम न करी शके?
आत्माना स्वभावमां पर द्रव्योनो अत्यंत अभाव छे. अभाव शुं करी शके? जो ‘ससलाना शींगडा’
कोईने लागे तो पर वस्तु आत्माने लाभ–नुकशान करे; परंतु जेम ससलाना शींगडानो आ जगतमां अभाव
छे, तेथी ‘ससलाना शींगडा मने लाग्या’ एम कोई मानतुं नथी अथवा तो ‘हुं ससलाना शींगडा कापुं छुं’ एम
कोई मानतुं नथी. तेवी रीते आत्माना स्वभावमां बधी वस्तुओनो, अत्यंत अभाव ज छे, तेथी ते वस्तुओ
साथे आत्माने कांई लागतुं–वळगतुं नथी एटले के कोई पण पर वस्तु आत्माने लाभ के नुकशान करी ज
शकती नथी. वळी जे राग थाय छे तेनो पण आत्माना त्रिकाळीस्वभावमां अभाव छे, अने पहेला समयना
रागनो पछीना समये अभाव छे, तो ते राग आत्माने शुं लाभ करे? राग आत्माना स्वभावमां लाभ करतो
नथी, अने ते राग ते पछीनी बीजी पर्यायमां पण आवतो नथी केम के रागनो बीजे समये अभाव छे.
(२००) तुं तारा स्वभावने स्वीकार!
आचार्यभगवान कहे छे के ताराथी चारित्र न थई शके तो श्रध्धामां गोटा वाळीश नहि; तारा स्वभावने
अन्यथा मानीश नहि. हे जीव! तुं तारा स्वभावने तो स्वीकार, जेवो स्वभाव छे तेवो मान तो खरो. जेवो
स्वभाव छे तेवो मान्या पछी स्थिरता थतां कदाच वार लागे तो तेथी विशेष नुकशान नथी, केम के जेणे पूरा
स्वभावने स्वीकारीने सम्यग्दर्शनने जाळवी राख्युं छे ते जीव अल्पकाळे स्वभावना जोरे ज स्थिरता प्रगट करीने
मुक्त थशे. परंतु जे स्वभावने ज नथी मानतो अने रागने ज स्वभाव माने छे ते जीव स्वभावनो अनादर
अने रागनो आदर करे छे, तेने अमर्यादित नुकशान छे, सम्यग्दर्शनथी भ्रष्ट थयो थको ते संसारमां ज रखडे छे.
सम्यग्दर्शन तो सहज स्वभावना पुरुषार्थवडे थाय छे, रागथी के देहादिनी क्रियाथी थतुं नथी.
(२०१) पंचम काळमां ओछी शक्ति वाळा जीवोए शुं करवुं?
श्री नियमसारशास्त्रनी (१५४) मी गाथामां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य देव कहे छे के–
जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं।
सत्तिविहीणो जो जइ सद्दहणं चेव कायव्वं।।१५४।।