चैत्र : २४७४ आत्मधर्म : ८५ :
हे भाई! जो तारामां शक्ति होय तो शुद्ध निश्चय–धर्मध्यानरूप प्रतिक्रमणादि कर, अने जो तारी शक्ति न
होय तो त्यां सुधी शुद्ध निश्चय धर्मनुं श्रद्धान तो अवश्य करवुं योग्य छे.
खास पंचकाळना जीवो प्रत्ये आचार्य भगवान कहे छे के, आ दग्ध पंचमकाळमां तुं शक्ति रहित हो तो
पण केवळ शुद्धात्मस्वरूप श्रद्धान तो अवश्य करजे. आ पंचम काळमां साक्षात् मुक्ति नथी, पण भव भयनो
नाश करनार एवो पोतानो आत्मस्वभाव छे, तेनी श्रद्धा करवी ए निर्मळ बुद्धिमान जीवोनुं कर्तव्य छे. तारा
भव रहित स्वभावनी श्रद्धाथी तुं अल्प काळमां भव रहित थई जईश.
(२०२) सम्यग्दर्शन सहित चांडाळ पण उत्तम छे
जेओ स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान करीने स्वभावनी स्थिरतामां लीन थया छे तेओ तो सर्वोतम छे; तथा
शुध्ध आत्म स्वभावनी साची श्रध्धा होय अने व्रतादि न होय तोपण ते उत्तम छे, परंतु जेओ आत्म
स्वभावनी श्रद्धा करे नहि अने शुभ राग करीने तेमां व्रतादि माने छे तथा ते राग वडे पोताने धर्मी माने छे ते
महा हीन छे; केमके ते तो श्रद्धानथी ज भ्रष्ट छे, तेथी ते अधर्मी छे.
रत्नकरंड श्रावकाचारनी २८ मी गाथामां कह्युं छे के– ‘सम्यग्दर्शन संयुक्त जीव चांडाळनां शरीरमां
उपज्यो होय तो पण गणधर भगवान तेने ‘देव’ कहे छे. सम्यग्दर्शन जेने उपज्युं छे एवो आत्मा पोते दिव्य
गुणोथी दीपे छे तेथी देव छे. ’ सम्यग्दर्शन रहित चक्रवर्ती पद के मोटुं देवपद ते पण तुच्छ छे–अशोभामय छे,
अने सम्यग्दर्शन सहित चांडाळ के देडकुं पण उत्तम छे.
(२०३) सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिनुं वलण
पुण्य क्षणिक छे, सम्यग्द्रष्टि के मिथ्याद्रष्टि बंनेने पुण्य लांबो काळ टकी शके नहि. सम्यग्दर्शन वगर ऊंचा
पुण्य होय नहि. मिथ्याद्रष्टि जीव शुभ कर्मनी लांबी स्थिति बांधे, पण मिथ्यात्व भावने लीधे पुण्यनी रुचिमां
लीन थईने, तत्त्वनो विरोध करीने पुण्यनी स्थिति छेदीने निगोद जाय छे. सम्यग्द्रष्टि जीवने स्वभावनुं भान
होवाथी पुण्यनी रुचि होती ज नथी, तेओ पुण्य पाप बंनेनो नाश करीने अल्प काळमां सिद्ध थाय छे. ए रीते
सम्यग्द्रष्टि के मिथ्याद्रष्टि कोई जीव एकला पुण्यमां लांबो काळ टकी शके नहि. सम्यग्द्रष्टि स्वभावना जोरे तेनो
अभाव करीने सिद्ध थाय छे, मिथ्याद्रष्टि पुण्यनी रुचिथी स्वभावनो अनादर करीने निगोद जाय छे. जगतमां
जेटली उत्कृष्टी पुण्य प्रकृतिओ छे ते सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे; तीर्थंकर, चक्रवर्ती, गणधर, बळदेव ईत्यादि उच्च
पदो सम्यग्द्रष्टिओ ज पामे छे.
(२०४) पहेलांं सम्यग्दर्शन, पछी मुनिदशा
हे भाई! पहेलांं तुं कोई पण उपाये–परम पुरुषार्थ वडे सम्यग्दर्शन प्रगट कर. सम्यग्दर्शन करीने पछी
विशेष पुरुषार्थ वडे जो सहज दशाथी राग टाळीने मुनिदशा प्रगटी शके तो अवश्य तेम करजे–परंतु कदाच राग
रहित मुनिदशानो विशेष पुरुषार्थ न थई शके तो पण सम्यग्दर्शन छोडीश नहि.
(२०५) सम्यग्दर्शन न थाय त्यां सुधी शुं करवुं?
प्रश्न:–आप सम्यग्दर्शननुं अपार माहात्म्य बतावो छो ए तो बराबर छे, ए ज करवा जेवुं छे, पण
एनुं स्वरूप न समजाय तो शुं करवुं?
उत्तर:–सम्यग्दर्शन वगर आत्म कल्याणनो बीजो कोई उपाय त्रण काळ त्रण लोकमां नथी; माटे ज्यां
सुधी सम्यग्दर्शननुं स्वरूप न समजाय त्यां सुधी एनो ज अभ्यास निरंतर कर्या करवो. आत्म स्वभावनी साची
समजणनो ज प्रयत्न कर्या करवो, ए ज सरळ अने साचो उपाय छे. जो तने आत्म स्वभावनी साची रुचि छे
अने सम्यग्दर्शननो महिमा जाणीने तेनी झंखना थई छे तो तारो समजवानो प्रयत्न नकामो नहि जाय.
स्वभावनी रुचि पूर्वक जे जीव सत् समजवानो अभ्यास करे छे ते जीवने क्षणे–क्षणे मिथ्यात्व भाव मंद पडतो
जाय छे. एक क्षण पण समजणनो प्रयत्न निष्फळ जतो नथी पण क्षणे क्षणे तेनुं कार्य थया ज करे छे.
स्वभावनी होंशथी जे समजवा मागे छे ते जीवने अनंत काळे नहि थयेली एवी निर्जरा शरू थाय छे.
श्रीपद्मनंदि आचार्यदेवे तो कह्युं छे के आ चैतन्य स्वरूप आत्मानी वात पण जे जीवे प्रसन्न चित्तथी सांभळी छे
ते जीव मुक्तिने लायक छे.
(२०६) सत् समजवाना लक्षे थती अंतर क्रिया
वळी अज्ञानी जीव व्रतादिमां धर्म मानीने जे शुभभाव करे तेना करतां सत् समजवाना लक्षे जे
शुभभाव थाय छे ते ऊंची जातनो छे. व्रतादिमां धर्म मानीने जे शुभभाव करे छे ते जीवने तो अभिप्रायमां
मिथ्यात्व पोषातुं जाय छे अने सत् समजवाना लक्षे तो क्षणे क्षणे मिथ्यात्व तूटतुं जाय छे. सत्ना लक्षे आवी
महान अंतर क्रिया थाय छे ते अज्ञा–