Atmadharma magazine - Ank 054
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ८६ : आत्मधर्म चैत्र : २४७४
नीओने ख्यालमां आवी शकती नथी; केमके तेओ बर्हिद्रष्टि होवाथी देहनी क्रियाने जोनारा छे पण अंतरमां
ज्ञानादिनी क्रियाने समजी शकता नथी. सत् समजवानो विकल्प ते पण ऊंचो शुभभाव छे अने सत् समजवुं ते
तो अपूर्व आत्मलाभ छे.
(२०७) चारित्रनो दोष होवा छतां श्रद्धानो दोष टाळी शकाय छे
पर लक्षे कषायनी मंदता करवी ते पण आत्म–स्वभावभावनी क्रिया नथी, तेना वडे सम्यग्दर्शन थतुं
नथी. अहीं आचार्यभगवान श्रद्धा अने चारित्र गुण वच्चे कथंचित् भेद बतावीने कहे छे के जो चारित्र न थई
शके तो पण श्रद्धा तो अवश्य करवी. अज्ञानीओ श्रद्धा अने चारित्रना भेदने समजता नथी, तेथी ते चारित्रना
दोषने श्रद्धानो दोष मानी बेसे छे एटले के चारित्र वगर सम्यक्श्रद्धा पण न होय एम ते माने छे. तेथी अहीं
कहे छे के चारित्रनो दोष न टळी शके तोपण श्रद्धानो दोष तो अवश्य टळी शके छे.
(२०८) पहेलांं सत्ने सत् तरीके ओळखवुं जोईए
जीवोए अनादिथी सम्यग्दर्शननो साचो महिमा जाण्यो नथी. चारित्र न पाळी शके छतां श्रद्धा करनारने
पण भगवाने सम्यग्द्रष्टि कह्यो छे; सम्यग्द्रष्टि जीव अवश्य मोक्ष पामे छे. माटे हे जीव! जेम वस्तुस्वरूप छे तेम
यथार्थ मानी लेजे. व्यवहारने व्यवहार तरीके जाणी लेजे, संतोने अंतर अने बाह्यमां जे सहजदशा छे तेने
जाणजे. पोताथी न थई शके माटे सत् जाणवुं पण नहि–एम न होय. जो सत्ने जेम छे तेम जाणे पण नहि तो
तो ते जीवनुं ज्ञान–श्रद्धान् पण साचुं थाय नहि, अने ज्ञान–श्रद्धान् साचां थया वगर चारित्र तो साचुं होय ज
क्यांथी? सत्ने सत्पणे बराबर जाणीने तेमांथी जेटलुं थाय तेटलुं तो करे अने बीजानी यथार्थ श्रद्धा तथा ज्ञान
राखे तो ते जीव आराधक छे. पण जो श्रद्धा–ज्ञानमां ज ऊंधु माने–जाणे तो ते विराधक छे.
(२०९) बंधभाव अने मोक्षभाव
जिनवर देवे कहेलां व्रतादि शुभराग छे ते मोक्षनुं कारण नथी पण बंधनुं कारण छे; सम्यग्दर्शन ज
मोक्षनुं मूळ छे–एम श्रद्धा राखीने व्यवहारनो निषेध करजे. ‘व्यवहार विना मोक्ष थाय नहि ने! व्यवहार तो
आववो ज जोईए ने’ एम जेनो झूकाव व्यवहार तरफ ढळे छे तेने व्यवहारनी होंश छे एटले के तेने
मिथ्यात्वनो पक्ष छे पण स्वभावनी प्रतीति नथी. राग आवे तेनो खेद वर्तवो जोईए तेने बदले होंश वर्ते छे
तेनी द्रष्टि ऊंधी छे–स्वभावनी श्रद्धाथी ज ते भ्रष्ट छे. ज्ञाता स्वभावमां वलणथी रागनी कोई वृत्ति ऊठे नहि,
जे कोई पण वृत्ति ऊठे छे ते ज्ञाता स्वभाव तरफना वलणने रोकीने ऊठे छे ते ज्ञाता स्वभाव तरफना वलणने
रोकीने ऊठे छे माटे बंधभाव छे. ज्ञाता स्वभावमां रागरहित वलण ते ज मोक्षना कारणरूप भाव छे. ए रीते
बंधभाव अने मोक्षभावना स्वरूपने ओळखीने तेनी श्रद्धा करजे. शरूआतमां ज बधा बंधभाव न छूटी जाय
परंतु श्रद्धामां एवो विश्वास होवो जोईए के आ बंधभाव छे, ते मारूं स्वरूप नथी.
(२१०) सम्यग्दर्शन साथे ज सम्यक्चारित्रनी प्रतीत
श्रद्धापूर्वक चारित्र थाय तो ते करवुं अने चारित्र न थई शके तो पण श्रद्धा तो अवश्य कर्तव्य छे–एम
आचार्य भगवाने कह्युं छे; तेथी एम न समजवुं के चारित्रनो निषेध थई जाय छे; केम के सम्यग्दर्शनमां
अभेदपणे सम्यक्चारित्रनी पूरेपूरी प्रतीत आवी ज जाय छे. चारित्रना विकारने सम्यग्दर्शन स्वीकारतुं नथी,
पण पूरेपूरा निर्मळ चारित्रने ज स्वीकारे छे. एटले सम्यग्दर्शन थतां ज श्रद्धापणे तो पूरेपूरुं चारित्र प्रगटी गयुं
छे अने ए ज सम्यक्श्रद्धापूर्वकना विशेष परिणमनथी सम्यक्चारित्र प्रगटे छे. सम्यग्दर्शनमां चारित्रना
विकारनो निषेध होवाथी सम्यग्द्रष्टिने चारित्रनो दोष वधारे वखत टकी शकवानो नथी पण सम्यग्दर्शनना जोरे
चारित्रनो दोष क्षणे क्षणे टळतो जाय छे. क्षायिकसम्यग्दर्शननी आराधनाथी वधारेमां वधारे त्रण भवे चारित्रनी
पूर्णता थईने मुक्ति थाय छे.
(२११) सम्यग्दर्शन साथे ज मुनिदशानुं चारित्र होवानो नियम नथी
गाथा – २ नो भावार्थ
अहीं आशय आ प्रमाणे छे : जो कोई एम कहे के ‘सम्यग्दर्शन थया पछी तो सर्व परद्रव्य–पर भाव रूप
संसारने जीव हेय जाणे छे, अने जेने हेय जाणे तेने छोडीने मुनि थई चारित्र आचरे. तेथी एम करे त्यारे
सम्यग्दर्शन थयुं–एम जाणीए, पण मुनिदशा पहेलांं सम्यग्दर्शन केम होय? ’ आ गाथामां तेनुं समाधान करे छे
के सर्व परद्रव्य–परभावने हेय जाणीने निजस्वरूपने उपादेय जाण्युं अने श्रद्धान कर्युं त्यारे