Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।
वर्ष पांचमुं : संपादक : वैशाख
रामजी माणेकचंद दोशी
अंक सातमो वकील
२४७४
[श्री खीमचंद जेठालाल शेठ]
गुण–पर्यायनो पिंड ते आत्मानुं स्वद्रव्य, असंख्यात
प्रदेशीपणुं ते आत्मानुं स्व–क्षेत्र, आत्मामां समये समये
थता पर्यायो ते तेनो स्व–काळ, अने त्रिकाळी शक्तिओ ते
आत्मानो स्वभाव–आ रीते सुराष्ट्र स्वरूप आत्माने
पोतानां द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनी साथे सर्वदा सर्वथा
एकम–ऐक्य छे. ते एक्य जेणे साध्य कर्युं ते सर्व प्रकारे
सुखी छे. ते कोई पण परपदार्थ साथे ऐक्य करवा ईच्छतो
नथी, कारण के पर साथे ऐक्य थई ज शकतुं नथी, ने तेथी
तेवा प्रकारनी ईच्छामां पण खेद–खिन्नता छे.
सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनुं ऐक्य ते ज मोक्षमार्ग
छे अने तेनी पूर्णता ते मोक्ष छे.
परनी साथे ऐक्य करी शकातुं ज नथी, छतां ऐक्य
करवानी अज्ञानभावे मान्यता करीने अनादिथी जीव दुःखी
थई रह्यो छे. ते दुःख दूर करवा माटे अनंत गुणो जेनो
त्रिकाळ समाज छे तेवा भगवान आत्मानी सेवा दरेक जीवे
निरंतर करवी जोईए.
वार्षिक लवाजम शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्र छुटक अंक
त्रण रूपिया
चार आना
आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया–काठियावाड