राखे, पण मान्यता एवी होय के आ वचन बोलवानी
क्रिया हुं करुं छुं अने आनाथी मने लाभ थाय छे,–तो
तेवा जीवने साची सरळता नथी, तेणे वक्र मान्यता
करीने पोताना आखा चैतन्य स्वभावने छूपाव्यो ते
ज परमार्थे अनंत कपट छे.
श्रीगुरु वगेरेना उपकारने जे छूपावे छे ते तो
व्यवहारमां पण सरळ नथी, तेने उत्तम वीतरागी
सरळता तो होय ज नहि. जेने व्यवहार सरळता
प्रगटी होय ते जीव गुरु पासे एम विनयथी प्रगट करे
के प्रभो, हुं पामर मूढ हतो, पामर हतो, आज सुधी
मने कांई ज खबर न हती, आपनी कृपाथी ज मने
लावीने स्वभावनुं बहुमान कर्या वगर तो व्यवहार
सरळता
करवी जोईए के शुं धर्म छे ने शुं दोष छे? पोताना
परमार्थ स्वभावने जाणीने तेना आश्रये स्थिर रहेतां
राग–द्वेषरूप मायानी उत्पत्ति ज न थाय–ए उत्तम
आर्जव धर्म छे. मुनिओने तेवी घणी स्थिरता प्रगटी
होय छे, पण तेमने जे अल्प राग होय ते टाळीने
संपूर्ण वीतरागी स्थिरता प्रगटाववानो पुरुषार्थ तेओ
करे छे. अने गृहस्थोए प्रथम तो एवी साची
वधारवानी भावना करवी जोईए. जे पोताना
आत्मामां आवी साची ओळखाण करे अने
वीतरागभाव प्रगट करे तेणे ज साचा दश लक्षण पर्व
उजव्या कहेवाय.
अंतर्मुहूर्त करतां वधारे काळ स्थिर रहेतो नथी पण
बदली जाय छे. आ रीते उपयोग बदलवानुं अने तेमां
क्रम पडवानुं कारण शुं छे? केवळज्ञानीने ज्ञान–दर्शन
एक ज्ञेयथी बीजा ज्ञेय उपर बदलतो नथी. छद्मस्थने
उपयोग बदले छे अने क्रम पडे छे तेनुं कारण राग
नथी परंतु ज्ञान–दर्शननो पर्याय ज क्षयोपशमभावे छे
तेथी तेमां क्रम पडे छे अने उपयोग बदले छे. बारमा
गुणस्थाने वीतरागता छे, त्यां राग न होवा छतां
उपयोगमां क्रम तो पडे छे अने उपयोग बदले पण छे.
तेथी, राग होय तो ज उपयोग बदले–एम नथी पण
ज्ञान–दर्शनना परिणमननी अपूर्णता (–
सातमाथी बारमा गुणस्थान सुधीमां पण उपयोग
बदलाय छे, श्रुतज्ञाननुं अवलंबन छे अने वच्चे
उपयोग बदलतां दर्शनउपयोग पण आवी जाय छे.
(चर्चामांथी: राजकोट ता. २३–११–४४)
शकातुं नथी. शरीरथी शांत बेठो होय तो ज
अनाकुळता कहेवाय अने लडाई करता देखाय ते वखते
अनाकुळता
बहारथी शांत बेठेलो देखाय छतां अंतरमां तो ते
विकारमां ज तन्मय वर्ततो होवाथी एकांतपणे आकुळता
ज भोगवे छे–तेने स्वरूप–जागृति जराय नथी. अने
ज्ञानी जीवो लडाई वखते पण अंतरमां ते विकारभाव
साथे तन्मयपणे वर्तता नथी, तेथी ते वखते पण तेमने
अंशे आकुळतारहित शांतिनुं वेदन होय छे–एटली
स्वरूप–जागृति तो धर्मात्माने वर्तती ज होय छे. आवी
स्वरूप–जागृति ते धर्म छे, बीजो कोई धर्म नथी.
अनंत दुःख प्राप्त थाय; चारे गतिमां रझळे.
करेलां होय ते प्रमाणे लाभ, अलाभ, आयुष, शाता,
अशाता मळे छे. पोताथी कांई अपातुं लेवातुं नथी.
अहंकारे करी ‘में आने सुख आप्युं, में दुःख आप्युं, में
कर्म उपार्जन करे छे. मिथ्यात्वे करी खोटो धर्म उपार्जन
करे छे. (बीजी आवृत्ति पृ. ४३६) श्रीमद् राजचंद्र
‘तणखलांना बे कटका करवानी शक्ति पण अमे
धरावता नथी; अधिक शुं कहेवुं? ’ श्रीमद् राजचंद्र