जेवो स्वभाव छे तेवो ज परिणमी गयो पण जराय वक्रता (विकार) न थयो ते परमार्थथी उत्तम आर्जवधर्म छे.
अने ते स्वभावमां विकृति थईने जेटला रागादि उत्पन्न थाय तेटलो उत्तमआर्जवधर्ममां भंग छे.
जाय छे तेथी ते शुभरागरूप आर्जवधर्मना फळमां स्वर्ग मळे छे. रागने लीधे वच्चे भव करवो पडे छे. परंतु
जेने स्वभावनुं भान नथी अने धर्मनो अनादर करीने वक्रताथी वर्ते छे ते तो नरकगतिमां जाय छे.
आत्मस्वभावने ऊंधी रीते मानवो ते ज सौथी मोटी वक्रता छे. सरळताना शुभ परिणाम के वक्रताना
अशुभपरिणाम ए बंनेथी रहित एक ज्ञायकस्वरूपी आत्मा छे, तेनी श्रद्धा–ज्ञान टकावी राखवां ते धर्म छे, दरेक
गृहस्थने पण ते धर्म थई शके छे. अने एवा सम्यक्श्रद्धाज्ञानपूर्वक जेमना आत्मामां अत्यंत सरळता प्रगटी
शुभभाव थाय ते पण छोडीने वीतरागी सरळता प्रगट करवी तेनुं नाम उत्तमआर्जवधर्म छे.
ष्वाजातेर्यमिनोऽर्जितेष्विह गुरुक्लेशैः शमादिष्वलम्।
सर्वे तत्र यदासते विनिभृताः क्रोधादयस्तत्त्वत–
स्तत्पापं वत येन दुर्गतिपथे जीवश्चिरंभ्राम्यति।।९०।।
ते मायाचार रूपी मकानमां क्रोध वगेरे कषायो पण छूपायेला होय छे, ते मायाचारथी उपजतुं पाप जीवने अनेक
प्रकारनी दुर्गतिमां भमावे छे. माटे मुनिओए मायाचारने उत्पन्न ज थवा न देवा जोईए.
सांभळीने ऊलटो एम कहे छे के ‘अरे, शुं अमे कपटी छीए? अमारो कहेवानो आशय बीजो हतो अने तमे बीजी
रीते समज्या छो. ’ एम जे पोतानो बचाव करवा मागे छे ते पापी मायाचारी छे. तेवा जीवमां अहिंसा–ब्रह्मचर्य
वगेरे होय तोपण खरेखर ते प्रशंसनीय नथी. मुनिने पण जेटले अंशे राग थाय छे तेटले अंशे उत्तम क्षमा–
निर्मानता वगेरे धर्मोमां कचाश छे. पहेलांं पोताने सत्नी कांई ज समजण न हती ने जे सत्पुरुष पासेथी अपूर्व
सत्नी समजण मळी, ते सत्पुरुषना उपकारने न स्वीकारे, पोतानी मोटाई खातर तेमनुं नाम वगेरे गोपवे, तेने याद
करवुं जोईए. मुनिने कांई दोष थयो होय अने ते दोष गुरु पासे प्रगट करतां जो संकोच थाय तो ते माया छे.
दोष छूपाववानी बुद्धिथी गुरु पासे प्रगट न करे अने पोतानी मेळे प्रायश्चित ले अगर तो ‘हुं मारो आ दोष
करे तो ते माया छे. अने पोताने लागेला बधाय दोषो सरळपणे प्रगट करी देवाना भाव ते पण शुभभाव छे,
ते शुभभावनो पण आदर नथी तेथी मुनिने ते व्यवहारथी उत्तमआर्जव छे. अने वीतराग भावे टकी रहीने
दोषनी उत्पत्ति ज थवा न देवी ते परमार्थ उत्तमआर्जवधर्म छे. शुभ रागथी धर्म माने एवो अज्ञानी जीव गमे
तेवी सरळताना परिणाम राखे, जराक जराक दोषने प्रगट करीने प्रायश्चित ले, तोपण तेने उत्तम आर्जव धर्म
जराय नथी. केम के रागमां धर्म मान्यो त्यां मूळ मिथ्यात्वरूपी दोष छे, तेनुं तो तेने भान नथी. जे दोष छे तेने
ज गुण मानी बेठो छे तेने सरळता केवी? सम्यग्दर्शनपूर्वक ज उत्तम सरळता होई शके, अने ते ज धर्म छे. जेवुं
मुद्रक : चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, मोटा आंकडिया, सौराष्ट्र ता. १–५–४८