Atmadharma magazine - Ank 055
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १२६ : आत्मधर्म : ५५
नथी. आम जाणीने पोताना ज्ञानमां स्थिरता प्रगट करीने जे धर्मात्माओए देहादिना अभिमाननो विकल्प
छोडी दीधो छे ने स्वभावनी द्रढता प्राप्त करी छे तेमने उत्तम मार्दवधर्म होय छे.
हालवुं–चालवुं–बोलवुं–स्थिर रहेवुं–मौन रहेवुं–खावुं वगेरे आत्मा करतो नथी, ए तो बधी शरीरनी
क्रियाओ छे. ते क्रियाओ हुं करुं छुं एम जे माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने जडनो अहंकार छे. देहना
परमाणुओनी अवस्था समये समये एनी मेळे ज बदले छे, तेनी साथे मारो संबंध नथी. मारा पर्यायनो संबंध
मारा त्रिकाळी द्रव्य साथे छे. निर्मळज्ञान–दर्शन अने चारित्ररूप मारी दशा समये समये बदलीने धु्रव स्वभावमां
एकता वधती जाय छे. ए रीते स्वभावनी एकता होवाथी परनुं अभिमान ज्ञानीने क्यांथी थाय? अहो,
मुनिवरोने अनेक ऋद्धिओ प्राप्त थई होय अवधि–मनःपर्ययज्ञान प्रगट थयुं होय, छतां य अभिमाननो जरा
य विकल्प पण थतो नथी, उलटा नम्र थईने स्वभावमां ढळीने पूर्ण केवळज्ञान प्रगट करे छे. मुनिने पर्याय तरफ
लक्ष जईने विकल्प ऊठे के ‘केवळज्ञान प्रगट करुं’ ते पण राग छे. एवा विकल्पने पण तोडीने वीतरागी स्वरूप–
स्थिरता ते उत्कृष्ट मार्दवधर्म छे, ने ते ज मोक्षनुं कारण छे.
मारा उपदेशथी बीजा धर्म पाम्या, के हुं बीजाने धर्म पमाडुं–एवी बुद्धि ज्ञानीओने होती नथी. वाणी जड
छे, ते वाणीनो कर्ता ज आत्मा नथी. तो पछी बीजाने धर्म पमाडुं ए वात तो क्यां रही? माटे परथी भिन्न
पोतानुं स्वरूप ओळखीने मुनिवरोए तो निरंतर ज्ञायक साक्षी स्वरूप आत्माना निर्मळ स्वभावनुं ज ध्यान
करवुं जोईए. ए रीते बीजा –उत्तममार्दव–धर्मनुं व्याख्यान पूर्ण थयुं.
३. उत्तम आर्जव धर्म
(भादरवा सुद–७)
आजे दशलक्षणपर्वनो त्रीजो दिवस छे; आजे ‘उत्तमआर्जवधर्म’ नो दिवस कहेवाय छे. उत्तम आर्जव
एटले सम्यग्दर्शनपूर्वकनी वीतरागी सरळता. आत्माना ज्ञायकस्वरूपमां कपटनो भाव ज उत्पन्न थवा न देवो ते
उत्तम सरळता छे. आत्मा ज्ञान–आनंदनी मूर्ति, क्रोध–मान–माया–लोभरहित छे, तेने जेवो छे तेवो समजवो
अने श्रद्धामां वक्रता न करवी ते सम्यग्दर्शनरूप सरळता छे. अने चैतन्यस्वरूपने जेम छे तेम न मानतां,
स्वरूपनी आडाई करीने पुण्य–पापवाळुं मानवुं ते अनंत कपट छे. कोई परना संगथी के पुण्य परिणामथी
आत्माने लाभ मानवो ते वक्रता छे, अनार्यता छे. आर्य एटले सरळ. जेवुं सहज ज्ञायकमूर्ति आत्मस्वरूप छे
तेवुं ज मानवुं, जराय विपरीत न मानवुं ते सरळता छे. अने चैतन्य स्वरूपनी समजणमां आडाई करीने कोई
विकल्प के व्यवहारना आश्रये लाभ मानवो ते अनार्यता छे. व्यवहाररत्नत्रय पण रागरूप छे, ते आत्मानुं
स्वरूप नथी. आत्मानुं ज्ञायक स्वरूप पुण्य–पाप रहित छे, व्यवहाररत्नत्रयरूप पराश्रित भावथी तेने लाभ
मानवो ते अनंत कपटनुं सेवन छे. अने ते व्यवहारनो आश्रय छोडीने, निश्चय शुद्ध ज्ञाता–स्वभावने जाणवो–
मानवो अने तेमां स्थिर थवुं ते उत्तमआर्जवधर्म छे. स्वभावनी श्रद्धा अने ज्ञान थया पछी मुनिदशामां जे
व्यवहाररत्नत्रयनी वृत्ति ऊठे ते राग छे, ते कांई उत्तम आर्जवधर्म नथी, पण राग रहित थईने जेटलो
स्वरूपमां ठर्यो तेटलो उत्तमआर्जवधर्म छे. खरेखर तो आत्माना वीतराग भावमां ज उत्तमक्षमादि दशे धर्मो
आवी जाय छे, दशे धर्मोमां वीतरागभाव एक ज प्रकारनो छे. पण ते वीतरागभाव थया पहेलांं क्षमादि जे
जातनो विकल्प होय ते अनुसार उत्तमक्षमाधर्म वगेरे नामथी ते वीतरागभावने ओळखाववामां आवे छे. अने
ते शुभ विकल्पने उपचारथी उत्तमक्षमादि धर्म कहेवामां आवे छे. आचार्य देव उत्तमआर्जवधर्मनुं वर्णन करे छे–
–आर्या–
हृदि यत्तद्वाचि वहिः फलति तदेवार्जवंभवत्येतत्।
धर्मो विकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ।।८९।।
जे वात मनमां होय ते ज वचनथी प्रगट करवी तेने आर्जवधर्म कहेवाय छे, अने तेनाथी विरुद्ध–एटले
के मायाथी बीजाने ठगवाना परिणाम ते अधर्म छे. आ बंनेमां आर्जवधर्म स्वर्गनो पंथ छे ने अधर्म नरकनो
पंथ छे. जेवुं हृदयमां होय तेवुं ज बोलवाना परिणाम ते तो शुभ परिणाम छे; वाणीथी भिन्न स्वरूपी छुं अने
जे शुभ परिणाम छे ते पण मारुं स्वरूप नथी–एम, सम्यक्स्वभावना भानपूर्वक शुभनो निषेध वर्ते छे तेना
शुभपरिणामने व्यवहारे उत्तमआर्जव कहेवाय छे.