जेठ : २४७४ आत्मधर्म : १३९ :
श्री परमात्म – प्रकाश प्रवचनो
अंक ५२ थी चालु [परमात्म – प्रकाश शास्त्र उपर पू. श्री सद्गुरुदेवश्रीनां व्याख्यानोनो सार] लेखांक – ३
सं: २४७३ द्वि. श्रावण वद–९ : सोमवार
गाथा–१ चालु
(१९) नयोना प्रकार अने तेना विषयो
आत्मानो जे त्रिकाळ परम पारिणामिकस्वभाव छे तेना ध्यानद्वारा ज रागद्वेष विकार टळे छे. रागादि
भावो स्वमां छे तेथी ‘निश्चय’ छे, पण ते विकार छे तेथी ‘अशुद्ध निश्चय’ छे. विकार भाव हता अने टळ्या
एनुं ज्ञान थयुं ते ‘अशुद्धनिश्चयनय’ छे. पण ते अशुद्ध–निश्चयनयना आलंबनथी विकार टळ्यो नथी,
शुद्धस्वभावने जाणनार निश्चयनयना आलंबनथी ज विकार टळ्यो छे. तेम ध्यानथी कर्मो टळ्यां तेने जाणवुं ते
असद्भूत अनुपचरित व्यवहारनय छे. असद्भूत एटले के आत्मामां ते कर्मो नथी, अनुपचरित एटले के ते
आत्मा साथे एकक्षेत्रे निमित्तनैमित्तिकसंबंधवाळा छे, अने आत्माथी पर छे माटे व्यवहार छे. एने जाणवुं ते
असद्भूत अनुपचरितव्यवहारनय छे.
ज्ञाननी जे पर्याय त्रिकाळी शुद्ध स्वभावने अने वर्तमान पर्यायने जाणे ते प्रमाणज्ञान छे. अने तेमांथी
एक त्रिकाळी शुद्धस्वभावने जाणे ते शुद्धनिश्चयनय छे–अने तेनो आश्रय ज कर्म टाळवानो उपाय छे. अने जे
निर्मळ पर्याय प्रगटी तेने जाणवुं ते एकदेश शुद्ध निश्चयनय छे, अहीं तेने अशुद्धनयमां समावी दीधो छे. रागादि
विकार छे ते पर्यायने जाणवी ते ‘अशुद्ध–निश्चयनय’ छे. अने कर्म टळ्यां एने जाणवुं ते
असद्भुतअनुपचरितव्यवहारनय छे. मिथ्याज्ञानमां नय होय नहि, अने पूर्ण ज्ञानमां नय होय नहि, नय तो
साधकने होय छे; साधकजीवने प्रमाण ज्ञान पछी नय तो एक पछी एक ज होय, एकसाथे बधा नयो न होय,
ज्यारे ते साधकजीव द्रव्यस्वभावने जाणवामां रोकाय त्यारे तेने शुद्ध निश्चयनय वर्ततो होय, अने विकारने जाणे
त्यारे अशुद्धनिश्चयनय वर्ततो होय. कर्म टळ्या एम जाणवुं ते अनुपचरितव्यवहारनय छे. अने घर मकान
वगेरे टळ्यां तेने जाणवुं ते तो उपचरितव्यवहारनय छे;–उपचरित एटले आत्मा साथे तेनो एकक्षेत्रावगाहरूप
संबंध नथी, ते तो दूर ज छे.
खरेखर अध्यात्मनयोथी तो रागद्वेषने आत्माना कहेवा ते उपचारनय छे, केमके ते आत्मानो स्वभाव
नथी. अने मोक्ष पर्याय ते पण सद्भूतव्यवहार छे. एकलो त्रिकाळी परमशुद्ध अभेद स्वभाव ते ज शुद्ध
निश्चयनयनो विषय छे, तेमां बंध–मोक्ष पण नथी.
प्रश्न:–नयना ज्ञानवगर सम्यग्दर्शन थाय के नहि?
उत्तर:–कदाच कोई ज्ञानीने नयना शब्दोनुं ज्ञान न होय पण तेना विषयनुं ज्ञान तो होय ज छे. अनेक
प्रकारना पडखांथी गृहीतमिथ्यात्वरूप जे ऊंधी मान्यता पकडी छे ते सम्यग्ज्ञानना अनेक पडखां जाण्या वगर
(–अर्थात् नयोना ज्ञान वगर) टळशे नहि. नयोना अनेक प्रकार समजवाथी ज्ञाननी निर्मळता पण वधे छे.
जे निर्मळपर्याय द्रव्यनो विषय करे छे ते पर्याय पण शुद्धद्रव्यार्थिकनयना विषयमां अभेदपणे समाई
गई छे, त्यां द्रव्य–पर्याय एकाकार थई गया छे. नय होय त्यां मुख्य–गौणपणुं होय ज. जो मुख्य–गौण न होय
तो कां तो पूर्ण ज्ञान थई गयुं होय अने कां तो एकांतरूप मिथ्याज्ञान होय. साधक ज्यारे द्रव्यस्वभावने जाणे छे
त्यारे तेने शुद्ध द्रव्यार्थिकनय वर्ते छे; ते वखते पर्याय गौण छे तथा ज्यारे रागादिने जाणे छे अने शुद्ध द्रव्यनुं
ज्ञान गौण छे, ते वखते अशुद्धनिश्चयनय (–अशुद्धद्रव्यार्थिकनय) वर्ते छे. नयोनुं ज्ञान ते शुद्धतानी प्राप्ति अने
वृद्धिनुं ज कारण छे. साधकनी पर्याय क्षणे क्षणे बदलती जाय छे तेमां पर्याये पर्याये शुद्धता वधती जाय छे; जो
पर्याय बदलती जाय तेम शुद्धता न वधे तो शुद्ध सिद्धदशानो साधक केम कहेवाय?
(२०) द्रव्यनमस्कार तथा भावनमस्कार अने तेने लागु पडता नयो
अहीं ग्रंथकार कहे छे के शुद्ध नित्य निरंजन ज्ञानमय सिद्धने नमस्कार करीने हुं आ ग्रंथ कहुं छुं. अहीं
नमस्काररूप वचन ते द्रव्यनमस्कार छे अने सिद्धआत्माना केवलज्ञानादि अनंतगुणोनुं स्मरण करवारूप जे
भाव छे ते भावनमस्कार छे. अनंतगुणोनुं स्मरण कोण करी शके? के जेणे अनंतगुणस्वरूप आत्मा ओळख्यो
होय तेवो सम्यग्ज्ञानी जीव अनंतगुणनुं स्मरण करी शके.