Atmadharma magazine - Ank 056
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १४८ : आत्मधर्म जेठ : २४७४
छे. ए वर्णन परनुं न समजवुं पण पोताना ज्ञानस्वभाव सामर्थ्यनुं ज ते वर्णन छे एम समजवुं. छ द्रव्यो के
नवतत्त्वोनुं वर्णन आवे त्यां तारे एम समजवुं के ए बधाने जाणवानी मारा ज्ञानस्वभावनी जे ताकात छे तेनुं
ज आ वर्णन छे. एम पोताना स्वभावनो महिमा लावीने, श्रद्धा करीने तेमां ज स्थिर थवुं ते जैनदर्शननुं
प्रयोजन छे. अनंता शास्त्रो अने अनंती दिव्यध्वनिओनो सार ए ज छे के तारा चैतन्य स्वरूपी आनंदमय
आत्माने ओळखीने एमां स्थिर था.
र् स्त्र
माटे अवश्य लक्षमां राखवा योग्य
नियमो.
(१) जैन दर्शन अनेकांत स्वरूप छे; ते दरेकवस्तुने अनेकांत स्वरूपमां बतावे छे. दरेक तत्त्व पोताना
स्वरूपमां अस्तिरूप अने परना स्वरूपथी नास्तिरूप छे. आ अनेकांत ए ज वस्तुनुं स्वरूप समजवानो उपाय
छे. तेनाथी ज जैन दर्शननी महत्ता छे.
(२) दरेके दरेक तत्त्व स्वतंत्र छे, पोते पोताथी अस्तिरूप छे अने परथी नास्तिरूप छे. जेमां जेनी
नास्ति होय तेमां ते कांई करी शके नहि तेथी कोईपण तत्त्व बीजा कोई तत्त्वनुं कांईपण करवा कदी समर्थ नथी.
(३) दरेक द्रव्यो एकबीजाथी जुदा होवाथी, तेमना गुणो अने पर्यायो पण त्रिकाळ जुदे जुदां ज छे.
अने दरेक द्रव्यना गुणपर्याय पोत पोताना द्रव्यना ज आधारे छे, कोईपण द्रव्यना गुण–पर्याय कदी पण कोई
बीजा द्रव्यना आधारे नथी.
(४) जीव पोते बीजा अनंत पर पदार्थोथी भिन्न छे तेथी कोई पर पदार्थो जीवने लाभ–नुकसान करी
शके नहि, जीवनो पुरुषार्थ स्वतंत्र छे. जगतना सर्व द्रव्यो स्वथी अस्तिरूप अने परथी नास्तिरूप एम अनेकांत
स्वरूप छे, ए अनेकांत द्वारा वस्तुस्वरूपनी स्वतंत्रता अने पूर्णता छे. आम भेद करावीने जैन दर्शन
आत्मस्वभाव साथे एकता करावे छे, ने परसाथेनो संबंध तोडावे छे.
(५) जैनदर्शनना शास्त्रोनुं कोईपण कथन होय तेनुं मूळ प्रयोजन वीतरागभाव ज छे. ए प्रयोजनने
अखंड राखीने ज जैनशास्त्रोना अर्थ समजवा.
उपर मुजब पांच नियमो बराबर लक्षमां राखी ने सत्शास्त्रोना अर्थ समजवामां आवे तोज तेनुं साचुं
रहस्य समजाय छे. कोईपण शास्त्र होय अने तेमां निश्चयनयनुं कथन होय के व्यवहारनयनुं कथन होय पण
तेनो साचो भावार्थ समजवा माटे उपरना नियमो लक्षमां राखीने तेना अर्थ करवा जोईए.
अस्ति–नास्तिरूप अनेकांतना मर्मने समजीने जो अर्थ करे तो शास्त्ररूपी समुद्रनो पार पामी जाय, –
शास्त्रना गमे ते कथनमां पण ते मूंझाय नहि. अने जो अनेकांत ना साचा मर्मने जाणे नहि तथा एक द्रव्य
बीजा द्रव्यमां कांई करे ईत्यादि प्रकारे पक्ष राखीने शास्त्र वांचे तो ते शास्त्रना अनेक विवक्षाओना कथनने
उकेली शकशे नहि, ते शास्त्रना कथननेज पकडीने त्यांज मूंजाई जशे–एटले के तेनुं ज्ञान मिथ्या रहेशे, ते
शास्त्रमां कहेला ज्ञानीओना आशयने समजी शकशे नहि.
आत्माने शुं खपे ने शुं न खपे – एनी
कोने खबर पडे?
घणा व्यवहारना आग्रही जीवो, हजी पोते आत्मस्वभावनी ओळखाण कर्या पहेलांं तो, मारे जैनना
हाथनुंज खपे अने अजैनना हाथनुं न खपे–एम कहे छे; परंतु भाई, हजी तुं पोतेज आत्मानी ओळखाण
वगर अजैन छो. पहेलांं सम्यग्दर्शन वडे तुं तो साचो जैन था; पछी तने वास्तविकपणे खबर पडशे के तारा
आत्माने शुं खपे अने शुं न खपे? ज्ञानीनो अभिप्राय तो एवो छे के मारे मारो वीतरागी स्वभाव अने
वीतरागताज खपे, रागनो अंश पण न खपे. एवा भानपूर्वक तेओने पोतानी भूमिका मुजब रागनो अने
तेनां निमित्तोनो त्याग होय छे. अज्ञानीने रागरहित स्वभावनुं तो भान नथी अने रागने आदरणिय माने
छे, एनी मिथ्या मान्यतामां एने अनंतो राग खपे छे अने एना निमित्तरूप अनंत पदार्थो खपे छे,–एनो तो
ते त्याग करतो नथी अने बहारमां आ वस्तु न खपे अने आ वस्तु खपे–एम करवामांज रोकाई पडे छे.
परिणाममां तो मंद कषायनुं पण ठेकाणुं भाग्ये ज होय छे. एवो मार्ग जैन–दर्शननो नथी. हजी हुं कोण अने पर
कोण ए ज समज्या वगर मारे शुं खपे अने शुं न खपे एनी अज्ञानीने शुं खबर पडे?