जेठ : २४७४ आत्मधर्म : १४७ :
छे. भले ते घणा शास्त्रो जाणतो होय तोपण ते मूर्ख छे.
(२) १. पैसाने लीधे जीवने सुख थतुं नथी पण साचा
ज्ञानथी ज सुख थाय छे.
२. जे जीव साचुं ज्ञान करे ते सुखी थाय. (साचुं
ज छे.)
३. ज्ञानी पासे पैसा होय के न होय तोपण
साचा ज्ञानने लीधे तेओ सुखी ज छे. जीवने पोताना
सुख माटे पैसानी जरूर नथी.
४. निरोग शरीर होय तो धर्म झट थाय–ए वात
खोटी छे. शरीरमां रोग होय तोपण, साची समजणथी
धर्म थई शके छे. शरीर साथे धर्मनो संबंध नथी.
५. शरीरनी क्रियाथी धर्म थतो नथी केम के ते तो
जड छे. धर्म तो आत्माना ज्ञाननी क्रियाथी थाय छे.
(३) द्रव्यत्वगुणने ओळखवाथी एम समजाय
छे के, जगतनी बधीये वस्तुओ पोतानी हालत पोतानी
मेळे ज बदलाव्या करे छे, कोई पदार्थनी हालत बीजो
पदार्थ करतो नथी. अजीवनी हालत जीव न बदलावे, ने
जीवनी हालत अजीव न बदलावे. आम दरेक वस्तुनी
स्वतंत्रता ओळखाय छे, अने बीजा उपरनो मोह टळे
छे ने पोतानुं साचुं ज्ञान प्रगट थाय छे.
(४) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्र ए त्रण रत्नोमांथी जो सम्यग्दर्शन रत्न
न होय तो बाकीनां बे रत्नो पण होता नथी. केम के
सम्यग्दर्शन वगरनुं ज्ञान ते मिथ्याज्ञान छे अने
सम्यग्दर्शन वगरनुं चारित्र ते मिथ्याचारित्र छे.
आ वखते एकंदर ६५ बाळकोना जवाब आव्या
हता, तेमांथी २५ बाळकोना जवाब साचा हता.
नवा प्रश्नो
[प्रश्नः१] “आत्मा अरूपी वस्तु छे तेथी पोते पोताने
जाणी शके नहिं” ए वात खोटी छे के साची? ते
न्यायथी समजावो.
[प्रश्नः२] नीचेना वाक्योमां खाली जग्या पूरी करो–
१. अरूपी वस्तुओ पण ज्ञानमां जणाय छे केम
के तेनामां..........गुण छे.
२. आत्माने कोईए बनाव्यो नथी अने तेनो
कदी नाश थतो नथी केम के तेनामां........गुण छे.
३. आत्मानी अज्ञानदशा टाळीने ज्ञानदशा
प्रगट करी शकाय छे केम के तेनामां..........गुण छे.
४. आत्मा बधा पदार्थोने जाणी शके छे केम के
आत्मामां...........गुण छे.
५. शरीरमां सुख–दुःख थतां नथी केम के
ते.....छे.
[प्रश्नः३] नीचे लखेल वस्तुओमांथी जे
जीवमां अने अजीवमां बंनेमां होय तेने शोधी काढो–
गुण, ज्ञान, राग, रंग, सुख–दुःख, अस्तित्व.
वधारानो प्रश्न:–महावीर भगवान पछी थई
गयेला साचा मुनिओमांथी गमे ते पांच मुनिओना
नाम लखो.
जवाबो जेम बने तेम वेलासर नीचेना
सरनामे मोकली देवा:
“आत्मधर्म बालविभाग.”
सोनगढ : सौराष्ट्र
– संचय –
आत्मस्वभावनो महिमा अने जैन –
दर्शनुं प्रयोजन
द्रव्य–गुण–पर्याय अने तेना दरेक अंशनी
स्वतंत्रता, अस्ति–नास्तिरूप अनेकांत, स्वथी पूर्णता,
परथी नास्ति–एवो तारो स्वभाव ज छे. जे कहेवाय
छे ते तारो स्वभाव ज कहेवाय छे. परनो महिमा
नथी, खरेखर सर्वज्ञनी वाणीनो महिमा नथी पण
आत्मस्वभावनो ज महिमा छे. सर्वज्ञनी
दिव्यवाणीमां पण, जे आत्मस्वभाव छे तेनुं ज वर्णन
कर्युं छे, कांई नवुं कह्युं नथी.
हे जीव! जैनदर्शन महाभाग्ये पाम्यो छो, हवे
तुं तारी अंतर रिद्धि–सिद्धिना भंडार तो जो. सर्वज्ञनी
दिव्यवाणी सिवाय बीजा कोई जेने पूरो कहेवा समर्थ
नथी अने सर्वज्ञना शासनमां सम्यग्ज्ञानीओ सिवाय
कोई जेने यथार्थपणे समजवा समर्थ नथी–एवो तारो
अंतर–स्वभाव छे. पण पोते पोताना स्वभावनो
महिमा कदि जाण्यो नथी. तेथी जे ते परपदार्थोनो
महिमा करीने अटकी जाय छे. अहो, आत्मानो महिमा
अपरंपार छे अने एने जाणनार ज्ञाननुं सामर्थ्य पण
अपार छे. सर्वज्ञनी वाणीमां अने जैनशासनमां
जेटलुं जेटलुं वर्णन छे ते बधुंय आत्मस्वभाव
समजाववा माटे ज