Atmadharma magazine - Ank 056
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page  


PDF/HTML Page 25 of 25

background image
ATMADHARMA With the permisdon of the Baroda Govt. Regd No. B. 4787
order No. 30/24 date 31 - 10 - 4
ज्ञानस्वरूप आत्मानी द्रष्टि अने एकाग्रता करे तो दुःख
टळे, संसारनी कोई वस्तुमां आ आत्मानुं सुख नथी,
सुख तो पोताना आत्मानी द्रष्टि करे तो प्रगटे.
प्रश्न:–कोई जीव उंघी गयो होय अने तेनी पासे
सर्प पड्यो होय, ज्यारे तेने कोई जगाडे अने कहे के
तारी पासे सर्प पड्यो छे, त्यारे तेने तरत ज भय थाय
छे. ज्यां सुधी सर्पनुं ज्ञान न होतुं त्यां सुधी तेने भय
न हतो, माटे ज्ञानथी ज भय थयो, तेथी ज्ञानने ज
दुःखनुं कारण मानवुं पडशे.
उत्तर:–नहि; ज्ञान दुःखनुं कारण छे ज नहि, ते
माणसने सर्पनुं ज्ञान करवाथी भय थयो नथी पण
शरीरनी ममताने कारणे ज भय थयो छे. उंघ वखते
तेने ओछुं दुःख हतुं अने सर्पनुं भान थतां दुःख वधी
गयुं–एम नथी. उंघ वखते पण जेटले अंशे शरीर
उपरनी ममता छे तेटले अंशे तेने प्रतिकूळतानो भय
पण अव्यक्तपणे रहेलो ज छे. पहेलांं अनुकूळताना
रागनी मुख्यता हती हवे प्रतिकुळताना द्वेषनी मुख्यता
छे, पण बन्ने वखते जेटले अंशे ममता छे तेटले अंशे ज
दुःख छे. जो सर्पनुं ज्ञान ते दुःखनुं कारण होय तो ते ज
सर्पने कोई मुनि देखे छतां तेमने जरापण भय केम
थतो नथी? केमके तेमने शरीर उपर ममता नथी. तेथी
प्रतिकूळतानो भय नथी. जे माणसने सर्पनी हाजरीमां
भय थाय छे तेने सर्पनी गेरहाजरी वखते पण पोतानी
ममताना कारणे दुःखनुं वेदन तो हतुं ज. जेने जेटले
अंशे अनुकूळतानी प्रीति होय तेने तेटले ज अंशे
प्रतिकूळतानो भय अथवा द्वेष होय ज.
– दु:खद् समाचार –
ता. ३१–५–४८ ना रोज वढवाण शहेरना रहीश
मुमुक्षु भाई श्री अमीचंद नागरदासनो सवारना सात
वागे स्वर्गवास थयो.
तेओ वढवाणना अग्रगण्य शेठ झुझाभाई
वेलसी ना कुटुंबना नबीरा हता. तेमनी उमर ४५
वर्षनी हती. तेओ स्वभावे आनंदी, मीष्टभाषी,
सेवाभावी अने सत्य धर्मना उपासक हता. तेओ परम
पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीना अनन्य भक्त
हता. अने सत्धर्मनो अत्यंत उत्कर्ष थाय ते जोवा
हरहंमेश आतुर हता. वढवाण शहेरमां “श्री जैन
स्वाध्याय मंदिर” बांधवानुं छे तेनुं खनन मुहुरत करवा
सवारना छ वागे आवेला अने मुहुरत साचवी घेर
पहोंचता तेमनुं हृदय एकाएक बंध पडी जवाथी तेमनो
देहविलय थयो. तेमना मानमां अहींना जीनींग तथा
प्रेसींग फेकटरीओ तथा रू बजार बंध रह्या हता.
पोते भव्य छे के अभव्य? तेनो
नि:संदेह निर्णय थई शके छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी लखे छे के–
“जे साधुओ तमने अनुसरता होय तेमने
समय–परत्वे जणावता रहेवुं के, ‘धर्म’ तेनुं नाम
आपी शकाय के जे धर्म थईने परिणमे. ‘ज्ञान’ तेनुं
नाम आपी शकाय के, जे ज्ञान थईने परिणमे. आपणे
आ बधी क्रिया अने वांचना ईत्यादिक करीए छीए ते
मिथ्या छे–एम कहेवानो मारो हेतु तमे समजो नहि,
तो हुं तमने कंई कहेवा ईच्छुं छुं–आम जणावी तेमने
जणाववुं के” आ जे कांई आपणे करीए छीए तेमां
कोई एवी वात रही जाय छे के जेथी ‘धर्म’ अने
‘ज्ञान’ आपणने पोताने रूपे परिणमतां नथी; अने
कषाय तेमज मिथ्यात्व (संदेह)नुं मंदत्व थतुं नथी,
माटे आपणे जीवना कल्याणनो फरी फरी विचार करवो
योग्य छे, अने ते विचार्ये कंईक आपणे फळ पाम्या
विना रहेशुं नहि. आपणे बधुं जाणवानुं प्रयत्न
करीए छीए, पण आपणो ‘संदेह’ केम जाय? ते
जाणवानो प्रयत्न करतां नथी. ए ज्यां सुधी नहि
करीए त्यां सुधी ‘संदेह’ केम जाय? अने संदेह होय
त्यां सुधी ज्ञान पण न होय; माटे संदेह जवानो
प्रयत्न करवो जोईए. ए संदेह ए छे के आ जीव
भव्य छे के अभव्य? मिथ्याद्रष्टि छे के सम्यग्द्रष्टि?
सुलभबोधी छे के दुर्लभबोधी? तूच्छसंसारी छे के
अधिकसंसारी? आ आपणने जणाय तेवो प्रयत्न
करवो जोईए.
[श्रीमद् राजचंद्र बीजी आवृत्ति पृ. ६३८–
६३९]
उपरना कथनथी स्पष्ट जणाय छे के, हुं भव्य
छुं के अभव्य ईत्यादि प्रकारनो निर्णय दरेक मनुष्य
करी शके छे. छद्मस्थ जीवो पोताना भव्य–
अभव्यपणानो निर्णय न करी शके–ए मान्यता महान
मिथ्यात्व छे. ‘हुं भव्य छुं’ एवा निर्णय वगर अने
‘हुं अभव्य छुं’ एवो संदेह टळ्‌या वगर जीवने धर्म
थई शके ज नहि. “हुं अभव्य छुं एटले के अनंत
अनंतकाळे पण मारी मुक्ति नथी” एवो जेने संदेह
वर्ती रह्यो छे ते जीव भवरहित थवानो पुरुषार्थ कोई
रीते उपाडी शकशे नहि अने भवरहित पुरुषोनी
वाणीनो आशय पण ते समजी शकशे नहि. हुं भव्य
ज छुं–निकटभव्य छुं, अभव्य नथी’ एवो निःशंक
निर्णय दरेक धर्मात्माने होय ज छे. जेने ए संबंधमां
निःशंक निर्णय न होय ते जीव धर्मसन्मुख थई शकतो
नथी.