: अषाढ : २४७४ : आत्मधर्म : १६५ :
जोयुं के एक महा तेजस्वी मुनिराज शहेर तरफ आवी आवी रह्या छे. पण राज्यना पहेरगीरो तेमने अटकावी
रह्या छे. ए द्रश्य जोईने कुमारने आश्चर्य थयुं. आश्चर्यथी तेणे माताने पूछयुं–हे माता! ए तेजस्वी पुरुष कोण
छे? ने पहेरगीरो तेने केम रोके छे?
कुमारनो प्रश्न सांभळतां ज सहदेवी राणीने ध्रासको पड्यो. तेने भय हतो के क्यांक मारो एकनो एक
कुंवर पण मुनिराजना दर्शनथी वैराग्य पामीने मुनिदीक्षा न लई ले! तेथी कुंवरनी वात टाळी देवा माटे तेणे
जवाब आप्यो के– ‘बेटा, ए तो हशे कोईक भिखारी. तारे एनुं शुं काम छे?’
राणीनी वात सांभळतां ज धावमाता तो रोई पडी. केमके ते जाणती हती के बहार ऊभेला मुनिराज
अन्य कोई नथी पण कीर्तिधर राजा ज छे. दुष्ट राणी एक वखतना पोताना पतिने ज भिखारी कही रही छे.
माताना जवाबथी राजकुमारने पण संतोष थयो नहि. तेणे विचार्युं के–ए पुरुषनी मुद्रा महातेजस्वी छे,
अत्यंत प्रसन्न छे, तेनामां दीनता जरापण नथी. ए भिखारी न होई शके. ए कोई महापुरुष छे.
धावमाताने रडती जोईने राजकुमारे तेने रडवानुं कारण पूछयुं. धावमाताए तेने साची हकीकत कही दीधी
के–‘कुमारजी! बहार ऊभेला महात्मा बीजुं कोई नथी पण तमारा पिता ज छे, अने तेओ मुनि थई गया छे.’
ए वात सांभळतां ज राजकुमार ते कीर्तिधर मुनि पासे दोडी गयो. जाणे के संसारना बंधनथी छूटीने मुक्ति
तरफ ज दोडतो होय! मुनिराज पासे पहोंचता ज तेमना चरणे नमी पड्यो, ने आंखमांथी आंसुनी धारा चालवा
लागी. तेमनी पासेथी वैराग्य भरपूर धर्मोपदेश सांभळीने राजकुमारनुं हृदय संसारथी तद्न उदास थई गयुं.
त्यां ने त्यां ज राजकुमारे जिनदीक्षा अंगीकार करी. पिताना राज्यनो वारसो छोडीने पिता पासेथी
धर्मनो वारसो लीधो. कलैयो कुंवर राजवैभव छोडीने पोतानी सिद्धदशा साधवा माटे चाली नीकळ्यो. क्षण
पहेलांंनो राजकुमार अत्यारे मुनिदशानी गंभीरताथी शोभी रह्यो छे. अहो, धन्य तेनुं आत्मज्ञान, अने धन्य
तेनो वैराग्य!
कीर्तिधर मुनि पासे सुकोशलकुमारे दीक्षा लई लीधी; ए जोतां ज सहदेवी राणीने एकदम आघात लाग्यो,
कीर्तिधर मुनि उपर क्रोध आव्यो. अने राजकुमारना वियोगे, वाघण जेवा क्रूर परिणामे मृत्यु पामी. मरीने ते
वाघण थई.
महावैराग्यवंत सुकोशल मुनि अने कीर्तिधर मुनि एक दिवस जंगलमां आत्मध्यानमां लीन हता.
एवामां वाघण थयेली सुकोशलनी माता त्यां आवी. ध्यानस्थ सुकोशल मुनिने जोतां ज तेमना उपर तराप
मारी. सुकोशलमुनिना शरीरने वाघण खाई रही छे, पण ते मुनिराज तो आत्माना आनंदमां झूली रह्या छे.
तेओ तो तुरत ज केवलज्ञान पामीने सिद्ध थया. अहो, धन्य ते राजकुमारनुं जीवन!
आ बाजु, सुकोशलमुनिना शरीरने खातां खातां वाघणनी नजर तेमना हाथ उपर पडी... अने तरत ज
ते थंभी गई. तेना मनमां एम थयुं के आवो हाथ में क्यांक जोयो छे! ... अने तरत ज तेने पूर्वभवनुं
जातिस्मरणज्ञान थयुं. अने शोकने लीधे तेनी आंखोमांथी अश्रुधारा चालवा लागी.
ते प्रसंगे श्रीकीर्तिधरमुनिए वाघणने उपदेश आप्यो के अरे वाघण! (सहदेवी!) तें तारा पुत्रनुं ज भक्षण
कर्युं? जे पुत्रना प्रेमनी खातर तुं मृत्यु पामी ते ज पुत्रना शरीरनुं तें भक्षण कर्युं? अहो, मोहने धिक्कार छे.
त्यां ने त्यां वाघण धर्म पामी, मांसभक्षण छोडी दीधुं, ने वैराग्यथी संन्यास धारण करीने मृत्यु पामीने
देवलोकमां गई; श्रीकीर्तिधरमुनि पण देवलोकमां जईने पछी मनुष्य थईने मोक्ष पाम्या.
बाळको! गृहवासमां पण धर्मात्मा ज्ञानीओनुं जीवन केवुं वैराग्य भरेलुं होय छे ते आ सुकोशल
राजकुमारनी कथा उपरथी समजजो. अने आत्मानी समजण करीने एवुं वैराग्य जीवन जीववानी भावना
करजो. (आ आखी कथानुं एक सुंदर चित्र ‘भगवान श्री कुन्दकुन्द प्रवचन मंडप’ –सोनगढमां छे.)
जोईए छे
श्री जैन अतिथि सेवा समिति (सोनगढ) मां नामुं वगेरे कामकाज करी शके एवा एक सेवाभावी
उत्साही जैन कारकुननी जरूर छे. जेनी रहेवा माटे ईच्छा होय तेणे नीचेना सरनामे पत्रव्यवहार करवो:–
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर सोनगढ (काठियावाड)