जाय–एवो नियम नथी. देह तो परमाणुओनो संयोग छे, तेनो वियोग आयुकर्मनी स्थिति पूरी थाय त्यारे थाय
छे; पण तेना उपरनुं ममत्व छोडीने निर्मोही चैतन्यस्वभावमां जागृत रहेवुं ते उत्तम आकिंचन्यधर्म छे.
मुनिओने शरीर, वाणी, पुस्तक वगेरे विद्यमान होय छे तोपण ते प्रत्ये जरा पण ममत्व राखता नथी तेथी
तेमने उत्तम आकिंचन्यधर्म छे.
संयमनुं निमित्त नथी, वस्त्र तो रागनुं–असंयमनुं–निमित्त छे. बुद्धिपूर्वक वस्त्र राखे–वस्त्र तरफनो विकल्प होय
छतां कोई कहे के मने ते प्रत्ये राग नथी, तो तेनी वात जूठी छे. निर्ममत्वपणे वस्त्रनो संयोग क्यारे गणाय?
ज्यारे मुनिराज सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक आत्मध्यानमां लीन होय, अने बहारना पदार्थोनुं लक्ष ज न होय ते
वखते कोई बीजा आवीने तेना उपर वस्त्र नांखी जाय तो ते वखते परिसह गणाय अने ते वखते ते मुनिने ते
वस्त्र रागनुं निमित्त नथी पण ज्ञाननुं निमित्त छे. ते वस्त्र साथे ज्ञेयज्ञायक संबंध छे. वस्त्र धारण करवानो
राग होवा छतां जो मुनिपणुं माने तो ते जीवने सम्यग्दर्शन पण होतुं नथी. मुनिदशाने अने निर्ग्रंथताने
निमित्तनैमित्तिक संबंध छे, पण मुनिदशाने अने वस्त्रने निमित्तनैमित्तिक संबंध नथी. वस्त्र उपरनुं ममत्व छूटी
गया पछी वस्त्र धारण करवानी बुद्धि थाय–एम बने ज नहि. वस्त्र छोडवानी क्रिया आत्मानी नथी, वस्त्र तो
एना कारणे स्वयं ज छूटे छे. पण वस्त्रनो राग छोडतां बहारमां बुद्धिपूर्वक वस्त्रनो संग होय ज नहि एवो
नियम छे. मुनिदशामां विकल्प ऊठे त्यारे शास्त्र वगेरेनुं आलंबन होय, परंतु तेनो पण आग्रह होतो नथी,
पण वस्त्र धारण करवानो राग ते तो अशुभभाव छे, ते तो मुनिदशामां होतो ज नथी. शास्त्र तो खरेखर
वीतरागभावनुं निमित्त छे, ज्यारे साक्षात् वीतराग–भावमां लीनता थती नथी अने विकल्प ऊठे छे त्यारे
वीतरागना निमित्तो प्रत्ये लक्ष होय छे. त्यारे अशुभभावथी बचीने जेटलो वीतरागभाव टकावी राखे छे,
तेटलो परमार्थे आकिंचन्य धर्म छे, ते वखतना शुभरागने उपचारथी आकिंचन्य धर्म कहेवाय छे. जेने
शुभरागनी ममता छे तेने तो एकलो अधर्म छे. रागनुं ममत्व छोडीने रागरहितस्वभावना श्रद्धा–ज्ञान पूर्वक
ज धर्म होय छे.
आयुष्यकर्मने लीधे ममता–वगर पण होई शके छे, परंतु अब्रह्मचर्यरूप पापभाव वगर स्त्रीनो संग होई शके
नहि. ब्रह्मचर्यभाव होय अने स्त्रीसंगनी बुद्धि होय–एम बने ज नहि. शरीर अने शास्त्र प्रत्ये जे ममता करे ते
मुनिने पण जिन–आज्ञानो भंग छे. मुनिदशा एटले अत्यंत निस्पृह वीतरागता; मुनिओ आकाशनी जेम
निरालंबीवृत्तिवाळा होय छे. एक वखत आहार होय छे. ते पण शरीरनी ममता खातर होतो नथी, परंतु
संयमना निभावनी वृत्तिथी होय छे. आहार लेवा जतां आहारमां दोषनो विकल्प ऊठे तो अंतराय जाणीने,
आहारनी वृत्ति तोडीने जरापण खेद वगर पाछा फरी जाय छे, ने पाछा आत्माना अनुभवमां लीन थई जाय
छे; आ रीते शरीरथी पण अत्यंत विरक्त होय छे, ने पोताना स्वभावमां वीतरागताने घूंटे छे. एवा
मुनिओने उत्तम आकिंचन्यधर्म होय छे, ते मोक्षनुं कारण छे. –अहीं उत्तम आकिंचन्यधर्मनुं व्याख्यान पूरुं थयुं.
हवे छेल्लुं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनुं व्याख्यान बाकी छे, ते हवे पछी आपवामां आवशे.