Atmadharma magazine - Ank 059
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४७४ : आत्मधर्म : २०७ :
लेखांक ६] त्त िन् र् [अंक ५८ थी चालु
: भदरव सद १३:
[श्री पद्मनंदी पचीसीमांथी दस लक्षण धर्मना व्याख्यानो श्री आचार्यभगवान उत्तम आकिंचन्य धर्मनुं वर्णन करे छे – ]
शिखरिणी
विमोहा मोक्षाय स्वहितनिरताश्चारूचरिता गृहादि त्यक्त्वा ये विदघति तपस्तेऽपि विरलाः।
तपस्यंतोन्यस्मिन्नपि यमिनि शास्त्रादि ददतो सहायाः स्युर्ये ते जगति यमिनो दुर्लभतरा।।
१०२।।
जेमनो मोह गळी गयो छे अने पोताना आत्महितमां सदा रत छे तथा पवित्र चारित्रने धारण
करनारा छे अने गृहादि छोडीने मोक्षना अर्थे जेओ तप करे छे एवा मुनिओ विरला ज होय छे. तथा जेओ
पोताना हितने माटे तप करी रह्या छे तेम ज बीजा तपस्वी मुनिओने शास्त्रादिक दान करे छे अने तेमना
सहायी छे एवा योगीश्वरो आ जगतमां अत्यंत दुर्लभ छे.
मुनिओने शास्त्रनुं अगाध ज्ञान होय तेनुं पण ममत्व के अभिमान होतुं नथी. बीजा मुनिओने ज्ञाननो
उपदेश देवामां जराय संकोच करता नथी, “हुं मारुं बधुं रहस्य आने कही दईश तो ते माराथी आगळ वधी
जशे” –एवा ईर्षाभावनो विकल्प पण मुनिने होतो नथी. बीजा कोई पोताथी आगळ वधीने पोतानी पहेलांं
केवळज्ञान पामी जता होय तो तेमां अनुमोदना छे. एवी रीते सम्यग्द्रष्टि गृहस्थोने पण ज्ञान–चारित्रादि
गुणोमां जे पोताथी अधिक होय तेमनी प्रत्ये अनुमोदना अने बहुमान होय छे. विकल्प वखते, अधिक गुणवान
प्रत्ये जो अनुमोदना न होय तो तेवा जीवने गुणनी रुचि नथी. मुनिओ अंतरमां जरापण गोपव्या वगर
सरळपणे पात्र जीवने सर्व रहस्यनो उपदेश करे छे. उपदेशना विकल्पने पण पोतानो मानता नथी. शरीरनुं
अने विकल्पनुं ममत्व जेमने नथी अने आहार तथा उपदेशादिना विकल्पने तोडीने वीतराग स्वभावमां स्थित
छे तेवा उत्तम आकिंचन्यधर्ममां रत मुनिओ आ जगतमां धन्य छे. तेमने चारित्रदशा तो छे, केवळज्ञान लेवानी
उग्र तैयारीवाळा छे, बार अंगनुं ज्ञान होय तेमां पण आसक्ति नथी; हजी क्यारेक जराक उपदेशादिनी वृत्ति
ऊठे छे तेने छोडीने स्वभावमां एकदम संपूर्ण स्थिरता वडे केवळज्ञान प्रगट करवाना कामी छे–एवा मुनिओ
दुर्लभ छे. मुनिओ उपदेशादि देवामां कोई ऊंची वातने के महिमावंत न्यायने छूपावता नथी; ज्ञानदान
आपवाथी ते कांई खूटे तेम नथी, पण ऊलटी पोताने ज्ञानस्वभावनी भावना घूंटाता ज्ञान एकदम खीलतुं
जाय छे. लौकिकमां पण जेने पोताना पुण्यनो विश्वास होय छे ते जीव दानमां लक्ष्मी वगेरे खरचवामां सहजपणे
उदार होय छे, दानमां वधारे लक्ष्मी खरचवाथी मारी लक्ष्मी खूटी जशे–एवी तेने शंका पडती नथी, तेम लोकोत्तर
मुनिवरोने पोताना पुरुषार्थनी प्रतीति छे के मारा ज्ञाननो विकास अटकवानो नथी, मारा स्वभावना आश्रये
मारा ज्ञाननी वृद्धि ज छे; ते मुनिओ बीजाने शास्त्रज्ञान देतां जराय अचकाता नथी. पोताने उपदेशनी वृत्तिमां
अटकवानी भावना नथी, पण वृत्ति तोडीने स्वभावमां ज एकाग्र रहीने पूर्ण ज्ञाननी भावना छे–आवा
मुनिवरोने उत्तम आकिंचन्य धर्म होय छे. आकिंचन्य एटले परिग्रह रहितपणुं ममता ते ज परिग्रह छे. ममता–
रहित वीतरागभाव ते उत्तम आकिंचन्य धर्म छे. भेदज्ञान वडे परथी जुदा स्वभावने जाण्या वगर पर उपरनी
ममता टळे नहि ने धर्म थाय नहि.
श्री मुनिओना आकिंचन्य धर्मने हजी विशेषपणे समजावे छे–
शिखरिणी
परंमत्वा सर्व परिहृतमशेषं श्रुतविदा वपुः पुस्ताद्यास्ते तदपि निकटं चेदिति मतिः।
ममत्वाभावे तत्सदपि न सदन्यत्र घटते जिनेन्द्राज्ञा भंगो भवति च हठात् कल्मषवृषेः।।
१०३।।
श्रुतना रहस्यने जाणनारा वीतरागी मुनिओए समस्त परवस्तुओने पोताना आत्माथी भिन्न जाणीने
तेनो त्याग करी दीधो छे. तेथी तेमने उत्तम आकिंचन्यधर्म छे. कोई पूछे के–शरीर अने पुस्तकादि निकट छे तेनो
त्याग केम न कर्यो? तेनो उत्तर–ते पण त्याग समान ज छे. शरीरादिमां ममतानो अभाव होवाथी ते नहि होवा
समान ज छे. आयुकर्मना नाश वगर शरीर छूटे नहि. पण शरीर उपरनुं ममत्व छूटी शके छे. अरिहंतोने पण
बहारमां शरीर तो विद्यमान छे पण तेमने ममत्वनो तद्न अभाव छे तेथी तेमने शरीरनो पण परिग्रह नथी.
मुनिओ जो हठथी शरीरने छोडे तो