Atmadharma magazine - Ank 059
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: २०६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४७४ :
वात छे, पण आत्माना त्रिकाळीस्वभावना विश्वासे वहाण तरे छे, त्रिकाळीस्वभावना विश्वासे पर्याय पूर्ण
थईने संसार समुद्रथी तरीने मुक्त थाय छे.
त्रिकाळ जाणनार स्वभाव छे, एवा स्वभावनी श्रद्धा थतां पर्यायमां रागनी मंदता तो होय ज, परंतु
रागनी मंदता थाय छे ते अहीं स्थापवुं नथी केम के ते क्षणिक पर्याय छे, तेना आधारे आत्मा जाणतो नथी.
त्रिकाळना आधारे रागादिनी मंदताने जाणे छे. शरीरनी क्रिया थाय के रागादि थाय तेने जाणे तेथी चैतन्यना
प्रकाशमां फेर पडी जतो नथी (‘केम के, ज्ञान सदाय पोताना स्वभावथी ज प्रकाशे छे.) पण ते रागादिने
जाणतां जो जीव एम माने के ‘आ रागादि हुं करुं छुं’ तो ते मान्यताथी चैतन्य प्रकाशनी श्रद्धा रहेती नथी.
आखा पूरा आत्माने माने तो धर्म थाय के क्षणिक विकार जेटलो ज आत्माने मानवाथी धर्म थाय? जो
क्षणिकने ज माने तो तेना आश्रये धर्म थाय नहि; त्रिकाळ चैतन्य छुं ने क्षणिक नहि–आवी प्रतीतिथी त्रिकाळनां
आधारे धर्म थाय छे. आ क्षणिक रागादि ज छुं ने त्रिकाळी नथी–एवी क्षणिकनी प्रतीति ते अधर्म छे. आत्मा परनुं
तो कांई करे नहि, अने स्वभावनो आश्रय छोडीने परने जाणे तेवो पण आत्मानो स्वभाव नथी. पूर्ण स्वभावने
जाणवो ते परमार्थ छे अने पूर्ण स्वभावना ज्ञान सहित रागने जाणवो ते व्यवहार छे, राग टळे ते जाणवुं ते पण
व्यवहार छे. रागने आत्मा टाळे ए पण व्यवहार छे. राग थाय, राग टळे अने रागने जाणे ए त्रणे व्यवहार छे.
आत्मा पोताना स्वभावथी ज जाणे छे, ने ज्ञेय पदार्थो तेना पोताना स्वभावथी ज विचित्र परिणति
पामे छे. “पोताना स्वरूपथी ज जाणता एवा आत्माने, वस्तुस्वभावथी ज विचित्र परिणतिने पामता एवा
मनोहर के अमनोहर शब्दादि बाह्यपदार्थो जराय विक्रिया उत्पन्न करता नथी.” दरेके दरेक रजकण स्वतंत्र
स्वभावथी विचित्र परिणति पामे छे, ज्ञान तेमां कांई करतुं नथी, ने ते विचित्र परिणतिवाळा पदार्थोने
जाणवाथी कांई ज्ञानमां ते पदार्थो विकार करता नथी. केमके ज्ञान पदार्थोने लीधे जाणतुं नथी पण पोताना
स्वरूपथी ज जाणे छे.
एक केवळी भगवान नजीकमां विचरता होय ने बीजा केवळी भगवान दूर विचरता होय, एक संत
मुनिराज पासे एम भाषा परिणमती होय के ‘एकेक आत्मा परिपूर्ण परमेश्वर छे’ अने बीजा संत मौन होय,
एक ज्ञानी धर्मात्मा आत्मानुं सत्य स्वरूप स्थापतां होय ने बीजो अज्ञानी जीव ‘आत्मा एकांत क्षणिक छे’
एम महा असत्य स्थापतो होय–आम विचित्र परिणति थाय छे ते वस्तुस्वभावथी ज थाय छे, बधाय पदार्थो
स्वतंत्रपणे पोतपोताना स्वभावथी ज विचित्र परिणति पामे छे, ते बधाय मनोहर के अमनोहर पदार्थोने जीव
पोताना ज्ञान प्रकाशथी जाणे छे, पण ते पदार्थो ज्ञानमां विक्रिया करतां नथी. अने ज्ञान पोताना स्वरूपथी ज
जाणे छे तेथी तेमां पण विक्रिया–विकार थतो नथी.
विचित्र परिणति थाय तेवो वस्तुनो स्वभाव ज छे. द्रव्यनी एकरूपे स्थिति होय, पण पर्यायमां तो
विचित्रता ज होय. ज्ञानने कारणे पदार्थोमां विचित्र परिणति थती नथी पण पदार्थोनो ते काळनो ते अवस्थानो
तेवो स्वभाव ज छे. अने पदार्थोमां विचित्र परिणति थाय छे तेने कारणे ज्ञान ते विचित्रताने जाणे छे–एम
पण नथी, ज्ञान पोताना स्वभावना आश्रये तेने पोताना स्वरूपथी जाणे छे. आवी स्पष्ट वात छे छतां
अज्ञानीओ निमित्तथी थाय एम माने छे.
आ शरीरना कटका थाय के सरखुं रहे ते तेना स्वभावथी ज छे, शरीरना कटका थाय ते परमाणुनी
विचित्र परिणति छे, सामा जीवना द्वेषने कारणे के तलवारने कारणे शरीर कपायुं नथी; तेम ज तलवारनी क्रिया
तलवारनी विचित्र परिणतिथी थई छे, कोईए द्वेष कर्यो तेने लीधे तलवारनी क्रिया थई नथी; दरेक पदार्थो
पोताना स्वभावथी विचित्र परिणतिवाळा छे, ज्ञान पोताना स्वभावमां रहीने तेने जाणे छे. विचित्र
परिणतिने जाणवाने कारणे रागद्वेष थता नथी. आवा पोताना जाणनार स्वभावनी श्रद्धा थई त्यां रागद्वेषनो
पण परदपदार्थोनी जेम जाणनार छे.
अहीं पदार्थोमां शुभ ने अशुभ एवा बे भेद पाड्या छे ते लोको माने छे ते अपेक्षाए छे, खरेखर
पदार्थो शुभ के अशुभ नथी. केवळज्ञान पर्याय ते शुभ तेम ज केवळीनो आत्मा अने तेना गुणो पण शुभ छे
अने अज्ञानी जीव तथा तेना गुण ते अशुभ छे–एम कहेवाय छे, परंतु आत्मानो चैतन्यस्वभाव तो बंनेनो
जाणनार छे, चैतन्यस्वभावने कोई शुभ के अशुभ नथी, चैतन्यस्वभाव पोते पोताने माटे शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपी
छे, बहारना कोई शुभ के अशुभ पदार्थोथी चैतन्यनी शुद्धतामां कांई फेर पडतो नथी, शुभ अशुभ पदार्थोने
जाणवाना कारणे राग–द्वेष थता नथी. आवा पोताना ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा ज्ञान करवा ते धर्म छे.