Atmadharma magazine - Ank 059
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४७४ : आत्मधर्म : २०५ :
परिणामने ज्ञान जाणे ज छे. लडाईमां हजारोनो संहार थतो होय तेने जाणे के पूंजणीथी पुंजवानी क्रिया थती
होय तेने जाणे–ते बंनेमां कांई फेर नथी, ज्ञान तो पोताना स्वभावनो ज आश्रय राखीने पोताना स्वरूपथी ज
जाणे छे.
जेम अनुकूळताने तेम प्रतिकूळताने पण स्वभावना आश्रये जाणे ज छे. जेम परना शरीरमां गलत
रोग थाय तेनो जाणनार छे ते ज रीते पोतानी नजीकमां–पोताना शरीरमां गलत रोग थाय ने आंगळा गळी
गळीने तूटी जाय–ते वखते तेनो पण जाणनार छे.
बीजानी आंख जाय के पोतानी जाय–तेमां कांई फेर नथी, तेनो आत्मा स्वरूपथी ज जाणनार छे. आवा
त्रिकाळ चैतन्यस्वरूपनी श्रद्धामां–प्रतीतिमां–विश्वासमां रागादिनी समीपता के असमीपताथी धर्म के अधर्म नथी.
रागादि होय तेने पण ज्ञान जाणे छे ने रागादि टळे तेने पण जाणे छे, ज्ञान तेनुं करनार के टाळनार नथी, अने
खरेखर परमार्थथी तो ज्ञान रागादिने जाणतुं पण नथी, केम के जो खरेखर रागादिने जाणे तो ते रागमां तन्मय
थई जाय.
हुं मने जाणनार छुं एवी श्रद्धामां, वर्तमानपर्याय त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनो आदर करे छे, त्रिकाळी
स्वभावना आश्रयथी ते जाणे ज छे, तेमां तेने पुण्य–पापनी मदद नथी तेम ज पुण्य–पापथी विघ्न पण नथी.
त्रिकाळी स्वभावनो आश्रय करीने ज्ञान जाणे छे तेने पर्यायमां पुण्य–पाप हो तो विरोधता नथी ने पुण्य–पाप
टळे तो कांई मदद नथी. एकली स्वभावद्रष्टि छे, एकली स्वभावद्रष्टि राखीने पुण्य–पाप होय तेने के पुण्य–पाप
टळे तेने ज्ञानी जाणे ज छे; तेने जाणवां छतां धु्रव स्वभावनो आश्रय ज्ञान छोडतुं नथी.
पर्याय एक समय पूरतो छे, उत्पन्नध्वंसी छे. त्रिकाळ चैतन्य स्वभाव धु्रव छे. एक समयना पर्यायनो
आश्रय करीने ज्ञान जाणतुं नथी, पण त्रिकाळनो आश्रय करीने जाणे छे. ज्यां वर्तमान वर्तती द्रष्टि त्रिकाळी
स्वभावनो आश्रय ले छे त्यां परमां समीप के असमीप कहेवा कोने? स्वभावमां द्रष्टि वळी त्यां पुण्य–पाप
साथे पण कांई लागतुं वळगतुं नथी; केमके द्रष्टिए तो त्रिकाळी वस्तुनो आश्रय कर्यो छे ने त्रिकाळी वस्तुमां
पुण्य–पाप छे नहि. पोताना नित्य प्रकाशक स्वभावनी द्रष्टि थई त्यां नजीकना के दूरना पुण्य–पाप साथे कांई
लागतुं वळगतुं नथी, तेने आत्मा जाणे छे ते पण व्यवहार छे. आवी श्रद्धा–प्रतीतिपूर्वक त्रिकाळी चैतन्य
तरफना जोरमां आत्मा पोताना स्वरूपथी ज प्रकाशे छे. आवो वस्तुस्वभाव परवडे उत्पन्न करी शकातो नथी, ने
ते स्वभाव परमां कांई करतो नथी.
पूर्ण स्वभावनी प्रतीतिमां आखो चैतन्य प्रकाशे छे, पोताना स्वरूपथी ज चैतन्य प्रकाशे छे तेने फेरववा
कोई दूरना के नजीकना पदार्थो समर्थ नथी. त्रिकाळी स्वभावनी प्रतीति होवा छतां अवस्थामां जे अल्प रागादि
थाय तो तेने पण पोताना चैतन्यस्वरूपथी जाणे ज छे. राग थयो ते कोई शुभ के अशुभ पर पदार्थोने कारणे
थयो नथी, अवस्थानी नबळाईथी थयो छे, ते नबळाई एक ज समय पूरती छे, त्रिकाळी स्वभावमां नथी–
आम एकला त्रिकाळी स्वभावना आश्रये ज कार्य थया करे छे.
कोई कहे के ‘आवी समजणनुं पालन थवुं कठण छे’ तो ते आ वातने समज्या नथी. एक समयमां पूरो
स्वभाव छे तेवो ज आदर ने अपूर्णतानो के विकारनो आदर नहि, विकार थाय तेनी गौणता ने विकारथी
स्वभावनी अधिकता राखीने स्वभावना आश्रये श्रद्धा–ज्ञान थया अने अज्ञान टळ्‌युं–ते ज समजणनुं पालन
छे. आवी समजण थई तेने दरेक समये स्वभावनी अधिकता छे ने रागादिनी गौणता छे–ए ज समजणनुं
आचरण छे.
वर्तमान वर्तती अवस्था पूर्णनी प्रतीति अने आश्रय करे ने धर्म छे. त्रिकाळी एकरूप चैतन्यस्वभावे छुं
अने विकारपणे नथी–एम त्रिकाळनो भरोसो न करे अने क्षणिकनो भरोसो करे तो ते जीवने धर्मद्रष्टि थती नथी.
आत्मा पोताना स्वरूपथी ज जाणे छे, रागादिथी जाणतो नथी. तेम ज पोताना स्वरूपने चूकीने एकला
रागादिने जाणे तेवो पण आत्मानो स्वभाव नथी. पोताना स्वभावनुं ज्ञान राखीने रागादिने पण जाणे छे
एटले रागादिने जाणतां पण स्वभावनी अधिकता रहे छे, ए सम्यग्ज्ञान छे. अज्ञानी जीव त्रिकाळी पदार्थने
अछतो करीने क्षणिक पदार्थने छतो करे छे, त्रिकाळीनो भरोसो छोडीने क्षणिकनो भरोसो करे छे, आ अधर्म छे.
अने ज्ञानी एक समय–पूरता क्षणिकभावने अछतो करीने अने त्रिकाळीस्वभावने छतो करीने तेना आश्रये
स्व–परने प्रकाशे छे. त्रिकाळीद्रव्यना विश्वासे क्षणिकने गौण करे छे. लौकिकमां पण बोलाय छे के ‘विश्वासे वहाण
तरे छे’ –ए तो बहारनी